Gurjara Pratihara Dynasty in hindi

Table of Contents

Gurjara Pratihara Dynasty – Founder, Kings, Architecture, Decline

गुर्जरप्रतिहार वंश का राजनीतिक इतिहास

गुर्जर-प्रतिहार वंश Gurjara Pratihara Dynasty (8वीं से 11वीं शताब्दी) मध्यकालीन भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण राजवंश था। यह वंश मुख्यतः उत्तर भारत और पश्चिम भारत में प्रभावी रहा। इस वंश ने अरब आक्रमणों को रोकने और भारतीय संस्कृति की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

Gurjara Pratihara Dynasty in hindi
Gurjara Pratihara Dynasty in hindi
WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now
Instagram Group Join Now

गुर्जरप्रतिहार वंश की उत्पत्ति

  • गुर्जर-प्रतिहारों की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं।
    • कुछ विद्वान इसे गुर्जर जाति से जोड़ते हैं।
    • अन्य इसे राजपूत वंश का अंग मानते हैं।
  • यह वंश राजस्थान, गुजरात और मध्य भारत में उभरा।

गुर्जरप्रतिहार वंश का उत्थान

  1. नागभट्ट प्रथम (725-740 ई.)
    • नागभट्ट प्रथम गुर्जर-प्रतिहार वंश के संस्थापक माने जाते हैं।
    • उन्होंने अरबों को हराकर भारत पर उनके आक्रमण को रोका।
    • उनका राज्य राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्सों तक फैला हुआ था।
  1. वत्सराज (775-805 ई.)
    • वत्सराज ने गंगा घाटी तक अपना साम्राज्य फैलाया।
    • उन्होंने त्रिपक्षीय संघर्ष की शुरुआत की और पाल वंश तथा राष्ट्रकूट वंश के खिलाफ कन्नौज के लिए संघर्ष किया।
  1. नागभट्ट द्वितीय (805-833 ई.)
    • नागभट्ट द्वितीय ने गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य को और अधिक सुदृढ़ किया।
    • उन्होंने कन्नौज को अपने साम्राज्य का केंद्र बनाया।
    • उन्होंने राष्ट्रकूट और पाल शासकों के साथ कई संघर्ष किए।
  1. मिहिर भोज (836-885 ई.)
    • मिहिर भोज गुर्जर-प्रतिहार वंश के सबसे महान शासक थे।
    • उन्होंने “आदि वराह” की उपाधि धारण की।
    • उनके शासनकाल में प्रतिहार साम्राज्य सबसे शक्तिशाली था और उत्तर भारत के बड़े हिस्से पर नियंत्रण स्थापित किया गया।
    • उन्होंने अरब आक्रमणकारियों को सफलतापूर्वक रोका।
  1. महेंद्रपाल प्रथम (885-910 ई.)
    • महेंद्रपाल प्रथम मिहिर भोज के उत्तराधिकारी थे।
    • उनके शासनकाल में कन्नौज एक सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र बना।
    • उन्होंने पाल और राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष जारी रखा।

गुर्जरप्रतिहार वंश का पतन

  1. आंतरिक संघर्ष:
    • शासकों के बीच सत्ता के लिए आंतरिक कलह ने साम्राज्य को कमजोर कर दिया।
  1. राष्ट्रकूटों का प्रभाव:
    • राष्ट्रकूट वंश के निरंतर आक्रमणों ने प्रतिहार वंश को कमजोर किया।
  1. तुर्क आक्रमण:
    • 11वीं शताब्दी में महमूद गज़नवी ने उत्तर भारत पर हमला किया और गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य को भारी क्षति पहुंचाई।
  1. क्षेत्रीय शासकों का उदय:
    • गुर्जर-प्रतिहारों की कमजोरी का लाभ उठाकर क्षेत्रीय शासकों जैसे चंदेल, परमार, और सोलंकी वंश ने अपनी स्वतंत्रता स्थापित की।

गुर्जरप्रतिहारों की विशेषताएँ

  1. अरब आक्रमणों का प्रतिरोध
    • गुर्जर-प्रतिहारों ने अरब आक्रमणकारियों को सफलतापूर्वक रोका।
    • यह भारतीय संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण था।
  1. सांस्कृतिक विकास
    • उनके शासनकाल में कला, वास्तुकला, और साहित्य का विकास हुआ।
    • उन्होंने मंदिर निर्माण को बढ़ावा दिया, जिनमें खजुराहो मंदिर प्रमुख हैं।
  1. त्रिपक्षीय संघर्ष में भूमिका
    • गुर्जर-प्रतिहार वंश कन्नौज के लिए पाल और राष्ट्रकूट वंश के साथ लंबे समय तक संघर्ष में शामिल रहा।
    • उन्होंने इस संघर्ष में कई बार विजय प्राप्त की और कन्नौज पर अधिकार किया।
  1. सामरिक शक्ति
    • उनकी सेना शक्तिशाली और संगठित थी।
    • उन्होंने घुड़सवार सेना और सैन्य रणनीतियों का सफलतापूर्वक उपयोग किया।

निष्कर्ष

गुर्जर-प्रतिहार वंश ने लगभग 300 वर्षों तक उत्तर और पश्चिम भारत में शासन किया। उन्होंने भारत पर विदेशी आक्रमणों को रोककर भारतीय संस्कृति और सभ्यता की रक्षा की। हालांकि, आंतरिक कलह, बाहरी आक्रमण, और क्षेत्रीय शासकों के उदय के कारण यह वंश अंततः पतन की ओर बढ़ा। उनका योगदान भारतीय इतिहास में विशेष रूप से राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

गुर्जरप्रतिहार वंश का कला और वास्तुकला में योगदान: महुगुर्जर शैली

गुर्जर-प्रतिहार वंश ने भारतीय कला और वास्तुकला को महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके शासनकाल में मंदिर निर्माण की एक अनूठी शैली विकसित हुई, जिसे महु-गुर्जर शैली कहा जाता है। यह शैली नागर वास्तुकला की परंपरा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

महुगुर्जर शैली की विशेषताएँ

  1. मंदिर संरचना की अनूठी विशेषताएँ:
    • मंदिरों में गर्भगृह, मंडप और शिखर का विशेष संयोजन देखा जाता है।
    • गर्भगृह छोटा और शिखर ऊँचा होता था, जो आकाश की ओर उन्मुख प्रतीत होता था।
  1. नक्काशी और मूर्तिकला:
    • प्रतिहारों के मंदिरों में पत्थरों पर सुंदर नक्काशी और मूर्तिकला देखी जाती है।
    • देवी-देवताओं की मूर्तियों में उनकी मुद्राएँ और भाव अत्यंत सजीव और अलंकरणयुक्त हैं।
  1. सौंदर्य और भव्यता:
    • मंदिरों में जटिल नक्काशीदार स्तंभ, तोरणद्वार और अलंकृत छतें शामिल थीं।
    • वास्तुशिल्पीय संतुलन और समरूपता पर विशेष ध्यान दिया गया।
  1. प्रमुख मंदिर:
    • खजुराहो के मंदिर: खजुराहो के प्रसिद्ध मंदिरों की वास्तुकला गुर्जर-प्रतिहार काल में आरंभ हुई।
    • ओसियां का सूर्य मंदिर और साचियामाता मंदिर (राजस्थान)
    • ग्वालियर का तेली का मंदिर
    • अभनेरी का हर्षद माता मंदिर

गुर्जरप्रतिहार वंश का साहित्य में योगदान

गुर्जर-प्रतिहार वंश के शासनकाल में साहित्य का भी व्यापक विकास हुआ। उन्होंने संस्कृत साहित्य, शिक्षा और विद्या को प्रोत्साहित किया।

1. संस्कृत भाषा का संरक्षण और संवर्धन

  • गुर्जर-प्रतिहार शासकों ने संस्कृत को राजकीय भाषा के रूप में अपनाया।
  • उनके दरबार में विद्वानों, कवियों और लेखकों को संरक्षण प्राप्त था।
  • संस्कृत साहित्य में धार्मिक, दार्शनिक, और वैज्ञानिक ग्रंथों की रचना हुई।

2. प्रमुख विद्वानों का संरक्षण

  • राजसेना और कवियों का योगदान: गुर्जर-प्रतिहार शासकों ने विद्वानों को अपने दरबार में स्थान दिया, जिन्होंने साहित्यिक ग्रंथों की रचना की।
  • भास्कराचार्य और अन्य खगोलविद-गणितज्ञों ने अपने कार्यों को इस काल में आगे बढ़ाया।

3. पौराणिक और धार्मिक ग्रंथों का विकास

  • इस काल में महाकाव्य, पुराण, और धर्मशास्त्र जैसे साहित्यिक विधाओं का व्यापक विकास हुआ।
  • प्रतिहार शासकों ने मंदिरों में वेद और धर्मग्रंथों के अध्ययन और प्रचार को बढ़ावा दिया।

4. कला और साहित्य का संबंध

  • प्रतिहारों के शासनकाल में साहित्य और कला का घनिष्ठ संबंध देखा गया।
  • मंदिरों की दीवारों पर की गई नक्काशी और मूर्तियाँ धार्मिक कथाओं और साहित्यिक रचनाओं से प्रेरित थीं।

5. संस्कृत ग्रंथों का संरक्षण

  • उनके काल में साहित्यिक ग्रंथों की प्रतिलिपि बनाने और उन्हें संरक्षित करने का कार्य किया गया।
  • शिक्षा के केंद्र जैसे नालंदा और उज्जैन में साहित्यिक गतिविधियाँ चरम पर थीं।

निष्कर्ष

गुर्जर-प्रतिहार वंश ने कला, वास्तुकला और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया। उनकी महु-गुर्जर शैली भारतीय मंदिर वास्तुकला की समृद्ध परंपरा का प्रतीक है। उन्होंने न केवल संस्कृत साहित्य का संरक्षण किया, बल्कि कला और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए भी अभूतपूर्व कार्य किए। उनका यह योगदान भारतीय इतिहास और संस्कृति में स्थायी प्रभाव छोड़ने वाला है।

कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष

पृष्ठभूमि

8वीं और 9वीं शताब्दी में उत्तरी भारत में कन्नौज एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक केंद्र था। हर्षवर्धन (7वीं शताब्दी) की मृत्यु के बाद कन्नौज का साम्राज्य कमजोर हो गया। इसके बाद तीन प्रमुख राजवंशों – गुर्जर-प्रतिहार, पाल वंश, और राष्ट्रकूट वंश – के बीच इस क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए संघर्ष शुरू हुआ। इस लंबे संघर्ष को त्रिपक्षीय संघर्ष के नाम से जाना जाता है।

त्रिपक्षीय संघर्ष के पक्षकार

  1. गुर्जर-प्रतिहार वंश:
    • मुख्यतः राजस्थान और मध्य भारत पर आधारित थे।
    • कन्नौज को अपने साम्राज्य का केंद्र बनाकर उत्तर भारत पर नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।
  1. पाल वंश:
    • बंगाल और बिहार के क्षेत्र में सत्ता स्थापित कर चुके थे।
    • धर्मपाल और देवपाल जैसे शासकों ने कन्नौज पर अपना दावा पेश किया।
  1. राष्ट्रकूट वंश:
    • दक्षिण भारत के महत्वपूर्ण शक्तिशाली राजवंश थे।
    • उन्होंने उत्तर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप कर कन्नौज पर अधिकार का प्रयास किया।

त्रिपक्षीय संघर्ष के प्रमुख चरण

  1. प्रारंभिक संघर्ष (8वीं शताब्दी के अंत)
    • धर्मपाल (पाल वंश) ने कन्नौज पर कब्जा किया और वहाँ एक बड़ा दरबार आयोजित किया।
    • वत्सराज (गुर्जर-प्रतिहार) ने धर्मपाल को हराकर कन्नौज पर दावा पेश किया।
    • राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने हस्तक्षेप किया और वत्सराज को हराया।
  1. मध्यकालीन संघर्ष (9वीं शताब्दी)
    • नागभट्ट द्वितीय (गुर्जर-प्रतिहार) ने राष्ट्रकूटों को हराकर कन्नौज पर अधिकार जमाया।
    • इसके बाद पाल शासक देवपाल ने कन्नौज पर हमला किया।
  1. अंतिम चरण (10वीं शताब्दी)
    • मिहिर भोज (गुर्जर-प्रतिहार) ने कन्नौज पर स्थायी नियंत्रण स्थापित किया।
    • राष्ट्रकूट और पाल वंश कमजोर पड़ गए।
    • परंतु आंतरिक संघर्ष और तुर्क आक्रमणों के कारण यह साम्राज्य कमजोर हो गया।

त्रिपक्षीय संघर्ष के प्रभाव

  1. राजनीतिक अस्थिरता:
    • लगभग दो शताब्दियों तक कन्नौज के लिए संघर्ष ने उत्तर भारत में राजनीतिक अस्थिरता बनाए रखी।
  1. आर्थिक नुकसान:
    • लगातार युद्धों के कारण कन्नौज और आसपास के क्षेत्र का आर्थिक और सामाजिक विकास बाधित हुआ।
  1. बाहरी आक्रमणों का मार्ग प्रशस्त:
    • इस संघर्ष के कारण भारत की आंतरिक शक्तियाँ कमजोर हो गईं और तुर्क आक्रमणकारियों के लिए रास्ता खुला।

गुर्जरप्रतिहार वंश का पतन

1. आंतरिक कमजोरियाँ

  • गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का पतन मुख्य रूप से शासकों के बीच आंतरिक कलह और कमजोर प्रशासन के कारण हुआ।
  • साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में क्षेत्रीय शासकों ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।

2. राष्ट्रकूट और पाल वंश से संघर्ष

  • त्रिपक्षीय संघर्ष ने गुर्जर-प्रतिहारों की सैन्य और आर्थिक ताकत को कमजोर कर दिया।
  • राष्ट्रकूटों और पालों के लगातार हमलों ने साम्राज्य को क्षीण कर दिया।

3. तुर्क आक्रमण

  • 10वीं शताब्दी के अंत और 11वीं शताब्दी की शुरुआत में तुर्क आक्रमणकारी, विशेष रूप से महमूद गज़नवी, ने गुर्जर-प्रतिहारों पर हमला किया।
  • गज़नवी ने 1018 ई. में कन्नौज पर हमला किया, जिससे प्रतिहार साम्राज्य को भारी नुकसान हुआ।

4. क्षेत्रीय शक्तियों का उदय

  • चंदेल, परमार, चालुक्य, और सोलंकी जैसे क्षेत्रीय शासकों ने प्रतिहार साम्राज्य के कमजोर होने का फायदा उठाया और स्वतंत्रता प्राप्त की।

5. आर्थिक पतन

  • निरंतर युद्धों और बाहरी आक्रमणों ने साम्राज्य की आर्थिक संरचना को कमजोर कर दिया।
  • व्यापार मार्गों पर नियंत्रण खोने से आर्थिक समृद्धि खत्म हो गई।

निष्कर्ष

कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष ने उत्तर भारत में राजनीतिक अस्थिरता और गुर्जर-प्रतिहार वंश के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुर्जर-प्रतिहार वंश ने भारतीय संस्कृति और राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया, लेकिन आंतरिक कलह, बाहरी आक्रमण और कमजोर प्रशासन के कारण यह वंश 11वीं शताब्दी में समाप्त हो गया।

FAQ

गुर्जर-प्रतिहार वंश की स्थापना किसने की?

गुर्जर-प्रतिहार वंश की स्थापना नागभट्ट प्रथम (725-740 ई.) ने की थी।

गुर्जर-प्रतिहार वंश का केंद्र कहां था?

इस वंश का प्रमुख केंद्र कन्नौज (कान्यकुब्ज) था।

गुर्जर-प्रतिहार वंश ने किस आक्रमणकारी को भारत में प्रवेश करने से रोका?

गुर्जर-प्रतिहारों ने अरब आक्रमणकारियों को भारत में प्रवेश करने से रोका। उन्होंने सिंध के क्षेत्र में अरबों को हराया।

Leave a Comment