Interwar period in hindi

Table of Contents

Interwar period in hindi

लीग ऑफ नेशंस (1920-1946)

लीग ऑफ नेशंस, 1919 में वर्साय संधि के तहत स्थापित किया गया था और इसका मुख्य उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखना था। इसका गठन पहले विश्व युद्ध के बाद किया गया ताकि भविष्य में युद्धों को टाला जा सके और देशों के बीच सहयोग बढ़ सके। लीग ऑफ नेशंस का मुख्यालय जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में था। यह संगठन 1920 से लेकर 1946 तक अस्तित्व में रहा और अंततः इसके स्थान पर संयुक्त राष्ट्र (UN) का गठन हुआ।

लीग ऑफ नेशंस के उद्देश्य:

  1. अंतर्राष्ट्रीय शांति बनाए रखना:
    लीग ऑफ नेशंस का प्रमुख उद्देश्य युद्धों को टालना था और देशों के बीच शांति बनाए रखना था। इसके लिए लीग ने कूटनीतिक बातचीत, मध्यस्थता और विवादों का हल निकालने के लिए संस्थाएं स्थापित की थीं।
  2. देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना:
    लीग ऑफ नेशंस का एक और उद्देश्य था कि देशों के बीच आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य मुद्दों पर सहयोग को बढ़ावा दिया जाए। यह संगठन मानवाधिकारों और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी ध्यान देता था।
  3. सैन्य शक्ति का अभाव:
    लीग ऑफ नेशंस के पास कोई वास्तविक सैन्य बल नहीं था, और इस वजह से यह शक्ति के दुरुपयोग को रोकने में विफल रहा। इसके पास केवल नैतिक दबाव था, लेकिन इस दबाव का प्रभाव शक्तिशाली देशों पर बहुत कम था।
Interwar period in hindi
Interwar period in hindi
WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now
Instagram Group Join Now

लीग ऑफ नेशंस के प्रमुख सदस्य:

लीग ऑफ नेशंस के सदस्य देशों में लगभग 58 देश शामिल थे, जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जापान, और जर्मनी जैसे प्रमुख शक्तियां भी शामिल थीं। हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका ने लीग ऑफ नेशंस में शामिल होने से मना कर दिया, और यह संगठन अपनी पूर्ण प्रभावशीलता हासिल नहीं कर सका।

लीग ऑफ नेशंस की कार्यप्रणाली:

  1. सर्वोच्च परिषद (Council):
    सर्वोच्च परिषद में प्रमुख सदस्य देशों के प्रतिनिधि होते थे, जो लीग के महत्वपूर्ण फैसले लेते थे। यह परिषद नियमित रूप से मिलती थी और युद्धों और अन्य विवादों के समाधान के लिए चर्चा करती थी।
  2. साधारण सभा (Assembly):
    लीग की साधारण सभा में सभी सदस्य देशों के प्रतिनिधि होते थे, जो वार्षिक बैठक करते थे। यहां पर मुख्य विषयों पर चर्चा होती थी और योजनाओं को अनुमोदित किया जाता था।
  3. सचिवालय (Secretariat):
    सचिवालय लीग ऑफ नेशंस का प्रशासनिक अंग था, जो संगठन के कार्यों का संचालन करता था और जानकारी एकत्र करता था।
  4. मध्यस्थता और विवाद समाधान:
    लीग ऑफ नेशंस ने देशों के बीच विवादों के समाधान के लिए कूटनीतिक प्रयास किए। इसके अंतर्गत युद्ध की स्थितियों को रोकने के लिए समझौतों की पेशकश की जाती थी और देशों के बीच शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में मार्गदर्शन दिया जाता था।

लीग ऑफ नेशंस की विफलताएँ:

  1. अमेरिका का अनुपस्थिति:
    सबसे बड़ी विफलता लीग ऑफ नेशंस की यह थी कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने इसमें शामिल होने से मना कर दिया। इसकी वजह से लीग की प्रभावशीलता काफी कमजोर हो गई, क्योंकि अमेरिका एक महत्वपूर्ण शक्ति था।
  2. दूसरे देशों का उल्लंघन:
    जर्मनी, जापान और इटली जैसे देशों ने लीग के निर्णयों की अवहेलना की। इन देशों ने युद्ध नीति अपनाई और लीग के नियमों का उल्लंघन किया, जिसके कारण लीग को अपनी योजनाओं में सफलता नहीं मिल पाई।
  3. निर्णय लेने में निष्क्रियता:
    लीग ऑफ नेशंस के पास कोई सैन्य शक्ति नहीं थी, और जब शक्तिशाली देशों ने लीग के निर्णयों को नजरअंदाज किया, तो संगठन कोई प्रभावी कदम नहीं उठा सका।
  4. द्वितीय विश्व युद्ध का आगमन:
    लीग ऑफ नेशंस द्वितीय विश्व युद्ध को रोकने में असफल रहा। इसके सबसे महत्वपूर्ण कारण थे उसके निर्णयों की कमजोरी और शक्तिशाली देशों का लीग के आदेशों का उल्लंघन।

लीग ऑफ नेशंस का अंत और संयुक्त राष्ट्र की स्थापना:

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लीग ऑफ नेशंस अपनी कार्यक्षमता में पूरी तरह से विफल हो गया और 1946 में इसे औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया गया। इसके स्थान पर संयुक्त राष्ट्र (UN) का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखना और दुनिया भर में सहयोग को बढ़ावा देना था।

निष्कर्ष:

लीग ऑफ नेशंस की स्थापना का उद्देश्य था वैश्विक शांति और सहयोग की स्थापना करना, लेकिन यह संगठन शक्तिशाली देशों के विरोध और अपने निर्णयों को लागू करने में असफल होने के कारण द्वितीय विश्व युद्ध को रोकने में विफल रहा। इसके बावजूद, इसने भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और शांति बनाए रखने के लिए एक आधारशिला रखी, जो संयुक्त राष्ट्र के रूप में विकसित हुआ।

महान मंदी (The Great Depression)

महान मंदी 1929 में शुरू हुई और 1930 के दशक तक विश्वभर में आर्थिक संकट का रूप ले लिया। यह 20वीं सदी का सबसे गंभीर आर्थिक संकट था, जो विशेष रूप से अमेरिका और यूरोप में महसूस किया गया, लेकिन इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा। यह मंदी मुख्य रूप से अमेरिका में शुरू हुई, लेकिन जल्दी ही पूरी दुनिया में फैल गई। महान मंदी ने न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक और राजनीतिक संरचनाओं को भी प्रभावित किया।

महान मंदी के कारण:

  1. स्टॉक मार्केट क्रैश (Stock Market Crash):
    1929 में अमेरिका के स्टॉक मार्केट में एक भयंकर गिरावट आई, जिसे “ब्लैक थर्सडे” (October 24, 1929) और “ब्लैक मंगलवार” (October 29, 1929) के नाम से जाना जाता है। शेयर बाजार के गिरने से निवेशकों ने भारी नुकसान उठाया और यह मंदी के प्रमुख कारणों में से एक था।
  2. सट्टेबाजी और अतिवृद्धि (Speculation and Overproduction):
    1920 के दशक में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अत्यधिक सट्टेबाजी और उत्पादन हुआ था। उद्योगों ने अधिक उत्पादन किया, जबकि उपभोक्ताओं के पास उस उत्पादन को खरीदने के लिए पर्याप्त क्रय शक्ति नहीं थी, जिससे बाजार में अनावश्यक माल भर गया और कीमतों में गिरावट आई।
  3. बैंकिंग संकट (Banking Crisis):
    बैंकिंग क्षेत्र में विश्वास की कमी भी मंदी का एक प्रमुख कारण बनी। कई बैंक दिवालिया हो गए और लोगों ने अपने खातों से पैसा निकाल लिया, जिससे बैंकों के पास धन की कमी हो गई और उन्होंने कर्ज देने में कमी कर दी। इसने और अधिक आर्थिक संकट को बढ़ावा दिया।
  4. विश्वव्यापी व्यापार संकट (Global Trade Crisis):
    1929 के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था में गिरावट आई, जिससे विश्व व्यापार में भारी कमी आई। इसके साथ ही, कुछ देशों ने व्यापारिक बाधाएं जैसे कि टैरिफ बढ़ा दिए, जिससे वैश्विक व्यापार और भी प्रभावित हुआ।

महान मंदी के परिणाम:

  1. बेरोजगारी:
    इस मंदी के परिणामस्वरूप बेरोजगारी दर में भारी वृद्धि हुई। अमेरिका में लाखों लोग अपनी नौकरियाँ खो बैठे, और इसी तरह अन्य देशों में भी रोजगार संकट पैदा हुआ।
  2. औद्योगिक उत्पादन में कमी:
    अमेरिका और अन्य देशों में औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आई, क्योंकि उपभोक्ताओं के पास खरीदारी की क्षमता नहीं थी और उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल की आपूर्ति भी प्रभावित हुई।
  3. गरीबी और सामाजिक संकट:
    आर्थिक मंदी ने समाज में व्यापक गरीबी फैला दी। लाखों लोग बेरोजगार हो गए, घरों से बाहर हो गए और बेसहारा हो गए। विभिन्न देशों में सामाजिक असंतोष और विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हुई।
  4. राजनीतिक अस्थिरता:
    महान मंदी ने राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया। कई देशों में आर्थिक संकट के कारण राजनीतिक बदलाव हुए। खासकर यूरोप में, फासीवादी और तानाशाही शासकों का उदय हुआ, जैसे कि हिटलर का जर्मनी में नाजीवाद और मुसोलिनी का इटली में फासीवाद।
  5. संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यू डील (New Deal):
    अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूजवेल्ट ने महान मंदी से उबरने के लिए “न्यू डील” कार्यक्रम की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के तहत सरकार ने सार्वजनिक रोजगार योजनाएं शुरू कीं, वित्तीय प्रणाली को सुधारने के लिए कदम उठाए और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की शुरुआत की। न्यू डील ने अमेरिकी समाज को पुनर्निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

महान मंदी का वैश्विक प्रभाव:

महान मंदी ने केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था को ही प्रभावित नहीं किया, बल्कि पूरी दुनिया को इसकी चपेट में लिया। यूरोप और अन्य विकासशील देशों में भी आर्थिक संकट आया। खासकर, जर्मनी और इटली जैसे देशों में सामाजिक और राजनीतिक असंतोष ने तानाशाही शासन की दिशा में वृद्धि की, जो अंततः द्वितीय विश्व युद्ध की ओर ले गया।

निष्कर्ष:

महान मंदी एक अत्यधिक गंभीर आर्थिक संकट था, जिसने न केवल आर्थिक और व्यापारिक प्रणालियों को प्रभावित किया, बल्कि वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य को भी बदल दिया। इससे निपटने के लिए कई देशों ने नए सुधारों की शुरुआत की, जैसे अमेरिका में न्यू डील, लेकिन इसका दीर्घकालिक प्रभाव लंबे समय तक महसूस किया गया। यह घटना यह दर्शाती है कि आर्थिक अस्थिरता के कारण समाज में क्या-क्या बदलाव हो सकते हैं और यह भी कि वित्तीय संस्थाओं पर निर्भरता और सट्टेबाजी का खतरा कितना बड़ा हो सकता है।

तानाशाही शासन का उदय (The Rise of Totalitarian Regimes)

20वीं सदी के पहले भाग में, विशेष रूप से 1920 और 1930 के दशक में, कई देशों में तानाशाही शासन का उदय हुआ। यह उभरते हुए तानाशाही शासक उन देशों में सत्ता पर काबिज हुए, जहां राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता थी। इन शासन व्यवस्थाओं ने लोकतांत्रिक प्रणालियों को नकारा और निरंकुश शक्ति का अभ्यास किया। तानाशाही शासन में शासक पूरी सत्ता को अपने हाथों में रखते थे और नागरिकों की स्वतंत्रता, अधिकार और मूलभूत स्वतंत्रताएँ सीमित कर दी जाती थीं।

तानाशाही शासन के प्रमुख कारण:

  1. विश्व युद्ध और आर्थिक संकट:
    प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) और महान मंदी (1929) ने दुनिया को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया। इन घटनाओं ने कई देशों में राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता पैदा की। बेरोजगारी, गरीबी, और आर्थिक संकट ने जनता में निराशा उत्पन्न की और तानाशाही शासन की ओर आकर्षित किया। कई लोग ऐसे नेताओं की तलाश में थे, जो उन्हें स्थिरता और सुरक्षा प्रदान कर सकें।
  2. लोकतंत्र और कूटनीति पर विश्वास की कमी:
    यूरोप और अन्य क्षेत्रों में लोकतांत्रिक सरकारों की असफलताएँ और कूटनीतिक विवादों ने तानाशाही शासकों को अवसर प्रदान किया। लोकतांत्रिक प्रणालियाँ संघर्ष और समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रही थीं, जिसके कारण लोगों ने कड़े और निर्णायक नेतृत्व की ओर रुख किया।
  3. राष्ट्रीयता और क्षेत्रीय विस्तार की भावना:
    तानाशाही नेताओं ने राष्ट्रीयता और साम्राज्य विस्तार की भावना को प्रोत्साहित किया। इसने देशवासियों को अपने नेता के प्रति विश्वास दिलाया और उनके नियंत्रण में रहने के लिए प्रेरित किया। विशेष रूप से जर्मनी में नाजीवाद और इटली में फासीवाद ने इस भावना का बहुत बड़े स्तर पर प्रचार किया।
  4. सामाजिक असमानता और असंतोष:
    सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ भी तानाशाही शासन की बढ़ती ताकत का कारण बनीं। शक्तिशाली वर्गों और सैनिकों ने तानाशाही शासन को अपनाया क्योंकि इससे उन्हें राजनीतिक और आर्थिक नियंत्रण हासिल करने में मदद मिलती थी।

प्रमुख तानाशाही शासन:

  1. जर्मनी में हिटलर का नाजीवाद (Hitler’s Nazism): जर्मनी में हिटलर ने 1933 में सत्ता संभाली और नाजी पार्टी के माध्यम से तानाशाही शासन की स्थापना की। हिटलर ने लोकतंत्र को समाप्त कर दिया, और अपनी विचारधारा को लागू किया, जिसमें राष्ट्रीय एकता, नस्लवाद, और आक्रामक युद्ध नीति शामिल थी। उन्होंने जर्मनी को फिर से शक्ति प्रदान करने के लिए विस्तारवादी नीति अपनाई, जो अंततः द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) का कारण बनी।
  2. इटली में मुसोलिनी का फासीवाद (Mussolini’s Fascism):
    इटली में बेनिटो मुसोलिनी ने 1920 के दशक में फासीवादी शासन स्थापित किया। उसने लोकतांत्रिक व्यवस्था को नकारा और एक केंद्रीयकृत, निरंकुश शासन की स्थापना की। मुसोलिनी ने ‘फासीवाद’ की अवधारणा को बढ़ावा दिया, जिसमें समाज के सभी पहलुओं पर राज्य का नियंत्रण होता था। मुसोलिनी की नीति में राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद और सत्ता के केंद्रीकरण पर जोर दिया गया।
  3. सोवियत संघ में स्टालिन का तानाशाही शासन (Stalin’s Totalitarianism in the Soviet Union):
    जोसेफ स्टालिन ने सोवियत संघ में 1920 और 1930 के दशकों में तानाशाही शासन स्थापित किया। स्टालिन ने शुद्धता अभियान, ज़बरदस्ती सामूहिकीकरण, और श्रमिक शिविरों का उपयोग किया। उनकी नीतियाँ लाखों लोगों की मौत का कारण बनीं। उन्होंने सोवियत संघ को एक शक्तिशाली राज्य बनाने के लिए व्यक्तिगत अधिकारों को समाप्त कर दिया और शासन की कठोरता को बढ़ाया।

तानाशाही शासन की विशेषताएँ:

  1. एकदलीय शासन (One-party Rule):
    तानाशाही शासन में एक ही पार्टी या नेता का शासन होता है। विपक्षी दलों को दबा दिया जाता है या उन्हें खत्म कर दिया जाता है।
  2. निरंकुश सत्ता (Absolute Power):
    तानाशाही में सत्ता पूरी तरह से एक व्यक्ति के हाथों में होती है, जो किसी भी प्रकार की आलोचना या विरोध को सहन नहीं करता। इस शासन में न्यायपालिका और अन्य संस्थाएं शासक के अधीन होती हैं।
  3. प्रचार और मनोवैज्ञानिक नियंत्रण (Propaganda and Psychological Control):
    तानाशाही शासन के तहत प्रचार का उपयोग किया जाता है ताकि जनता के विचारों और विश्वासों को नियंत्रित किया जा सके। मीडिया, शिक्षा और कला का उपयोग शासन के पक्ष में किया जाता है।
  4. सैन्य और पुलिस का नियंत्रण (Control of Military and Police):
    तानाशाही शासन में सैन्य और पुलिस ताकतवर होती हैं। ये सत्ता के स्थायित्व को बनाए रखने के लिए शासक के आदेशों का पालन करती हैं और किसी भी विद्रोह या असंतोष को कुचलने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है।

तानाशाही शासन का वैश्विक प्रभाव:

  1. द्वितीय विश्व युद्ध (World War II):
    तानाशाही शासन, विशेष रूप से जर्मनी और इटली में, ने द्वितीय विश्व युद्ध का कारण बना। हिटलर और मुसोलिनी ने आक्रामक विदेशी नीतियाँ अपनाईं और युद्ध के रास्ते पर चले गए।
  2. लोकतंत्र का संकट (Crisis of Democracy):
    तानाशाही शासन ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया और कई देशों में जनवादी आंदोलनों और लोकतांत्रिक संरचनाओं के खिलाफ असहमति को बढ़ावा दिया।
  3. मानवाधिकारों का उल्लंघन (Violation of Human Rights):
    तानाशाही शासन में मानवाधिकारों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन हुआ। लाखों लोग राजनीतिक प्रतिरोध, नस्लीय सफाई और अत्याचारों का शिकार हुए।

निष्कर्ष:

तानाशाही शासन का उदय राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अस्थिरता का परिणाम था। यह शासन प्रणाली ताकतवर नेताओं द्वारा स्थापित की गई, जिन्होंने अपनी शक्ति को मजबूत करने के लिए लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को नष्ट किया। तानाशाही शासन ने न केवल अपने देशों को प्रभावित किया, बल्कि उसने वैश्विक राजनीति और युद्धों की दिशा को भी बदल दिया।

अंतरयुद्ध काल में आक्रमण और समझौता (Aggression and Appeasement during the Interwar Period)

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद, दुनिया में एक अस्थिर राजनीतिक और आर्थिक स्थिति उत्पन्न हुई, जिसे “अंतरयुद्ध काल” कहा जाता है (1919-1939)। इस अवधि के दौरान, कई देशों ने अपनी आक्रामक नीतियों और विस्तारवादी प्रवृत्तियों को अपनाया, जबकि अन्य देशों ने उन्हें रोकने के लिए समझौता (appeasement) की नीति अपनाई। यह दौर द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) की ओर बढ़ने वाला था, और आक्रमण और समझौते के कारण वैश्विक शांति के प्रयास विफल हो गए।

आक्रमण (Aggression) के कारण:

  1. तानाशाही शासन का उदय:
    1920 और 1930 के दशक में तानाशाही शासन का उभार हुआ, विशेष रूप से जर्मनी (हिटलर), इटली (मुसोलिनी), और जापान में। इन शासकों ने अपने देशों की शक्ति को बढ़ाने और अन्य देशों के क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए आक्रामक नीतियाँ अपनाईं।

    • हिटलर का आक्रमण: जर्मनी के नेता एडोल्फ हिटलर ने यूरोप में विस्तार की नीति अपनाई। उन्होंने 1933 में सत्ता संभालने के बाद जर्मनी को फिर से सामरिक और राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश की। हिटलर ने 1939 में पोलैंड पर आक्रमण किया, जो द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत का कारण बना।
    • इटली का आक्रमण: मुसोलिनी ने इथियोपिया (1935) पर आक्रमण किया और इस प्रकार औपनिवेशिक विस्तार की नीति अपनाई।
    • जापान का आक्रमण: जापान ने 1931 में मांचुकुओ (मांचुरिया) पर आक्रमण किया और 1937 में चीन के बड़े हिस्से में अपना कब्जा जमा लिया।
  2. नस्लीय और साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ:
    इन आक्रामक राष्ट्रों ने अपने-अपने देशों में नस्लीय श्रेष्ठता और साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा दिया। हिटलर ने “आर्क्टिक” नस्ल (आदर्श जर्मन नस्ल) की बात की, जबकि जापान ने एशिया में अपना साम्राज्य स्थापित करने की योजना बनाई।
  3. सैन्यीकरण और युद्ध की तैयारी:
    इन देशों ने अपने सैन्य बलों को मजबूत किया और युद्ध की तैयारी की। हिटलर ने जर्मनी में राइच्सवेहर (सैन्य बल) को पुनः स्थापित किया और इटली और जापान ने भी अपने सैन्य बलों को बढ़ाया।

समझौता (Appeasement) की नीति:

  1. समझौता की नीति का उदय:
    1930 के दशक में, ब्रिटेन और फ्रांस ने तानाशाही शासकों के आक्रामक व्यवहार को रोकने के बजाय, उनकी कुछ मांगों को स्वीकार करने की नीति अपनाई। इसे “समझौता” (appeasement) कहा जाता है। इस नीति का मुख्य उद्देश्य युद्ध को टालना और शांति बनाए रखना था।

    • ब्रिटेन का समझौता: ब्रिटेन के प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन ने हिटलर के साथ समझौता किया और 1938 में म्यूनिख समझौता (Munich Agreement) पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते में, चेम्बरलेन ने हिटलर को चेकोस्लोवाकिया के सूदेतन क्षेत्र (Sudetenland) का हिस्सा देने की अनुमति दी। चेम्बरलेन ने इसे “शांति का हमारा समय” कहा, लेकिन यह समझौता हिटलर को और अधिक आक्रमण करने का मौका प्रदान करने वाला था।
    • फ्रांस का समर्थन: फ्रांस भी ब्रिटेन के साथ था और उसने हिटलर के आक्रमण को रोकने के बजाय उसे कुछ क्षेत्रों को सौंपने का विकल्प चुना।
  2. समझौते के नकारात्मक परिणाम:
    समझौता की नीति ने तानाशाही शासकों को और अधिक आक्रामक बनने के लिए प्रोत्साहित किया। हिटलर ने म्यूनिख समझौते के बाद अन्य क्षेत्रों पर कब्जा करना शुरू कर दिया, जैसे कि चेकोस्लोवाकिया का पूरा भाग और पोलैंड। यह नीति अंततः विफल हो गई, क्योंकि हिटलर की महत्वाकांक्षाएँ अनियंत्रित हो गईं और द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हो गई।
  3. समझौते का मनोवैज्ञानिक प्रभाव:
    समझौता की नीति ने तानाशाही शासकों को यह संदेश दिया कि पश्चिमी शक्तियाँ उनकी आक्रामकता को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाएंगी। इससे तानाशाही शासकों का आत्मविश्वास बढ़ा और वे अपने विस्तारवादी लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में सक्षम हो गए।

निष्कर्ष:

आक्रमण और समझौता की घटनाएँ अंतरयुद्ध काल में महत्वपूर्ण थीं। जबकि तानाशाही शासकों ने आक्रामक नीतियाँ अपनाईं और युद्ध के लिए माहौल तैयार किया, पश्चिमी लोकतांत्रिक शक्तियाँ समझौते की नीति अपनाकर युद्ध को टालने की कोशिश करती रहीं। हालांकि, यह नीति विफल रही और अंततः द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। आक्रमण और समझौता की घटनाएँ यह दर्शाती हैं कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में शांति बनाए रखने की कोशिशों के बावजूद तानाशाही शक्तियाँ विश्व शांति के लिए एक बड़ा खतरा बन गईं।

अंतर-युद्ध काल UPSC PYQs

प्रश्न 1: दो विश्व युद्धों के बीच लोकतांत्रिक राज्य प्रणाली के लिए एक गंभीर चुनौती उत्पन्न हुई।” कथन का मूल्यांकन करें। (UPSC मुख्य परीक्षा 2021)

प्रश्न 2: महान आर्थिक मंदी को रोकने के लिए कौन से नीतिगत उपकरण तैनात किए गए थे? (UPSC मुख्य परीक्षा 2013)

FAQ

1. इंटर-वॉर पीरियड क्या था?

उत्तर: 1918 से 1939 के बीच का समय, जो प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) और द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के बीच आता है, इंटर-वॉर पीरियड कहलाता है।

2. इस अवधि में कौन-कौन से महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुए?

उत्तर: वर्साय संधि (1919) लीग ऑफ नेशंस का गठन (1920), ग्रेट डिप्रेशन (1929), हिटलर और नाजी पार्टी का उदय (1933), इटली द्वारा इथियोपिया पर हमला (1935), स्पेनिश सिविल वॉर (1936-1939)

3. हिटलर का उदय कैसे हुआ?

उत्तर:वर्साय संधि की कठोर शर्तों से जर्मनी में असंतोष फैला।, ग्रेट डिप्रेशन के कारण आर्थिक संकट गहरा गया।, हिटलर और नाजी पार्टी ने राष्ट्रवाद और सैन्य शक्ति को बढ़ावा देने का वादा किया।, 1933 में हिटलर जर्मनी का चांसलर बना और तानाशाही शासन स्थापित किया।

Leave a Comment