Nehruvian Foreign Policy in hindi
नेहरू की विदेश नीति के बुनियादी पहलू (Basic Parameters of Nehru’s Foreign Policy)
पंडित नेहरू ने भारतीय विदेश नीति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका दृष्टिकोण स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय राजनीति को वैश्विक मंच पर एक नया स्थान देने का था। नेहरू की विदेश नीति को विशेष रूप से गांधीवादी आदर्शों, लोकतांत्रिक मूल्यों, और समाजवादी दृष्टिकोण से प्रभावित माना जाता था। उन्होंने एक ऐसी नीति अपनाई जो भारत के हितों को प्राथमिकता देती थी, साथ ही दुनिया भर में शांति, सहयोग और स्वतंत्रता को बढ़ावा देती थी। नेहरू की विदेश नीति के बुनियादी पहलू निम्नलिखित थे:
1. गैर–संरेखण (Non-Alignment) नीति
- नेहरू की विदेश नीति का सबसे प्रमुख घटक था गैर–संरेखण नीति। इसका उद्देश्य था कि भारत न तो किसी भी शक्ति गुट का हिस्सा बने, न ही किसी महाशक्ति के प्रभाव में आये। यह नीति विश्व युद्ध के बाद के दौर में भारत को स्वतंत्र और स्वायत्त बनाए रखने का एक माध्यम थी।
- गैर-संरेखण के द्वारा नेहरू ने भारत को शीत युद्ध की दोनों प्रमुख महाशक्तियों (संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ) के प्रभाव से मुक्त रखा और विकासशील देशों के लिए एक स्वतंत्र विदेश नीति का उदाहरण प्रस्तुत किया।
2. शांति और सद्भावना (Peace and Goodwill)
- पंडित नेहरू की विदेश नीति में शांति और सद्भावना को विशेष स्थान था। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय विवादों के समाधान के लिए युद्ध के बजाय कूटनीतिक उपायों को अपनाया। उनका विश्वास था कि अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान शांति और बातचीत से होना चाहिए।
- पंचशील सिद्धांत, जो 1954 में चीन के साथ समझौते में सामने आया, शांति, सम्मान और सद्भाव का प्रतीक बन गया। पंचशील के पांच सिद्धांत थे:
- आपसी सम्मान
- सीमा और क्षेत्रीय अखंडता की सुरक्षा
- समानता और पारस्परिक लाभ
- आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से बचना
- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व
3. समाजवादी दृष्टिकोण (Socialist Approach)
- नेहरू की विदेश नीति में समाजवादी विचारधारा की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंच पर विकासशील देशों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम किया और ऐसे देशों के साथ संबंध बनाए जो उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और नस्लीय भेदभाव के खिलाफ थे।
- उन्होंने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता संग्राम के देशों का समर्थन किया और संयुक्त राष्ट्र संघ में सामूहिक सहयोग को बढ़ावा दिया।
4. भारत का सार्वभौमिक नेतृत्व (India’s Global Leadership)
- पंडित नेहरू का विश्वास था कि भारत को अंतरराष्ट्रीय मामलों में नेतृत्व करना चाहिए, खासकर विकासशील देशों के हितों के लिए। उन्होंने अफ्रीका, एशिया, और लैटिन अमेरिका के देशों के साथ मजबूत कूटनीतिक संबंध स्थापित किए।
- नेहरू ने आसियान (ASEAN) और गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non-Aligned Movement – NAM) के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
5. मूलभूत अधिकार और मानवाधिकार (Fundamental Rights and Human Rights)
- नेहरू ने भारतीय विदेश नीति में मानवाधिकारों को भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना। वे हमेशा यह चाहते थे कि दुनिया भर में मानवाधिकारों का उल्लंघन न हो और भारत अपने कूटनीतिक संबंधों में इसे प्रमुखता से उठाए।
नेहरू के तहत भारत के पड़ोसी देशों के साथ संबंध (India’s Relations with its Neighbouring Countries under Nehru)
पंडित नेहरू के कार्यकाल में भारत के पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण रहे। उनका मानना था कि दक्षिण एशिया में शांति, सहयोग और दोस्ती से क्षेत्रीय स्थिरता बनी रह सकती है। नेहरू की विदेश नीति ने भारत के पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन उनके शासन के दौरान कुछ देशों के साथ रिश्ते तनावपूर्ण भी रहे।
1. पाकिस्तान के साथ संबंध
- नेहरू–पाकिस्तान संबंध: पंडित नेहरू के पाकिस्तान के साथ संबंध बहुत जटिल थे। 1947 में विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्ते तनावपूर्ण रहे। कश्मीर विवाद एक प्रमुख समस्या बनकर उभरा।
- 1947-48 कश्मीर युद्ध: 1947-48 में पाकिस्तान और भारत के बीच कश्मीर पर युद्ध हुआ, जिसका परिणाम संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता में युद्धविराम और कश्मीर का विभाजन था। नेहरू का मानना था कि कश्मीर का मुद्दा एक अंतरराष्ट्रीय विवाद है और इसका समाधान संयुक्त राष्ट्र द्वारा किया जाना चाहिए।
- लाहौर समझौता (1950): नेहरू ने पाकिस्तान के साथ आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों को बेहतर बनाने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन कश्मीर विवाद के कारण संबंध हमेशा तनावपूर्ण रहे।
2. चीन के साथ संबंध
- चीन के साथ संबंधों का आरंभ: नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद चीन के साथ अच्छे रिश्तों की शुरुआत की थी। उन्होंने चीन को अंतरराष्ट्रीय मंच पर मान्यता देने के साथ-साथ तिब्बत को लेकर चीन के हितों का सम्मान किया।
- कश्मीर और सीमा विवाद: हालांकि, 1950 के दशक में चीन के साथ संबंधों में कुछ तनाव उत्पन्न हुआ। 1959 में तिब्बत पर चीन का कब्जा और कश्मीर सीमा विवाद के कारण रिश्तों में तनाव आ गया।
- 1962 का भारत–चीन युद्ध: भारत-चीन सीमा विवाद के कारण 1962 में युद्ध हुआ, जिससे नेहरू की विदेश नीति में एक बड़ा धक्का लगा। युद्ध के परिणामस्वरूप चीन के साथ रिश्ते बिगड़े और भारत को अपनी सुरक्षा नीति पर पुनर्विचार करना पड़ा।
3. नेपाल और भूटान के साथ संबंध
- नेपाल: नेहरू ने नेपाल को भारत का पारंपरिक मित्र माना और दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्ते बनाए। 1950 में भारत और नेपाल के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत दोनों देशों ने एक-दूसरे के सुरक्षा हितों का सम्मान किया।
- भूटान: भूटान के साथ भी भारत का एक खास रिश्ता था। भूटान को सुरक्षा के लिए भारत की मदद मिली और नेहरू ने भूटान के विकास में भारत का सहयोग बढ़ाया।
4. श्रीलंका (सीलोन) के साथ संबंध
- श्रीलंका (तत्कालीन सीलोन) के साथ भारत के संबंध अच्छे थे। नेहरू ने हमेशा श्रीलंका के साथ सहयोग बढ़ाने का प्रयास किया। हालांकि, 1950 के दशक में कुछ मतभेद उभरे, खासकर तमिल मामलों में, लेकिन फिर भी दोनों देशों के बीच सहयोग बना रहा।
5. बांग्लादेश (पाकिस्तान से विभाजन)
- पंडित नेहरू के शासन के दौरान बांग्लादेश का जन्म नहीं हुआ था, लेकिन उन्होंने पाकिस्तान के साथ भारतीय बांग्लादेशियों के मुद्दे पर कूटनीतिक रूप से काम किया।
निष्कर्ष
पंडित नेहरू की विदेश नीति ने भारतीय कूटनीति के एक नए युग की शुरुआत की। उन्होंने हमेशा भारत के हितों को प्राथमिकता दी, साथ ही विश्व स्तर पर शांति, सहयोग और न्याय की बात की। उनके कार्यकाल के दौरान भारत के पड़ोसी देशों के साथ संबंध मिश्रित रहे, कुछ देशों के साथ अच्छे रिश्ते बने, जबकि कुछ देशों के साथ सीमा विवादों और अन्य मुद्दों के कारण तनाव उत्पन्न हुआ। फिर भी, उनकी विदेश नीति ने भारत को वैश्विक मंच पर एक सम्मानित स्थान दिलाया।
नेहरूवियन विदेश नीति का महत्व (Significance of Nehruvian Foreign Policy)
नेहरूवियन विदेश नीति भारतीय कूटनीति का आधार बनी, जो भारतीय राष्ट्र के स्वतंत्रता संग्राम के सिद्धांतों और आदर्शों से प्रेरित थी। पंडित नेहरू ने भारत की विदेश नीति को आकार देने के दौरान कई महत्वपूर्ण दृष्टिकोण अपनाए, जो न केवल भारत के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक थे। नेहरूवियन विदेश नीति के कुछ प्रमुख महत्व निम्नलिखित हैं:
1. गैर–संरेखण नीति (Non-Alignment Policy)
- नेहरू की विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था गैर–संरेखण नीति। यह नीति भारत को शीत युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों (संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ) से स्वतंत्र बनाए रखने का प्रयास करती थी। इसके तहत भारत ने न तो पश्चिमी गुट से जुड़ा और न ही पूर्वी गुट से। इसका उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता और स्वायत्तता की रक्षा करना था।
- भारत ने अपनी विदेश नीति में स्वतंत्रता, शांति और न्याय का पालन किया और दूसरे देशों के मामलों में हस्तक्षेप से बचने का प्रयास किया।
2. पंचशील सिद्धांत (Panchsheel Principles)
- 1954 में चीन के साथ पंचशील समझौता नेहरू के नेतृत्व में हुआ, जो शांति और सद्भावना का प्रतीक बना। पंचशील के पांच सिद्धांत थे:
- आपसी सम्मान
- सीमा और क्षेत्रीय अखंडता की सुरक्षा
- समानता और पारस्परिक लाभ
- आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से बचना
- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व
- यह सिद्धांत केवल भारत और चीन के रिश्तों के लिए नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए एक आदर्श बन गया।
3. विकासशील देशों का समर्थन
- नेहरू ने विकासशील देशों की ओर से समर्थन किया और उनके खिलाफ औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी शासन के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non-Aligned Movement) की स्थापना की, जिसमें भारत ने नेतृत्व किया और विकासशील देशों के अधिकारों का समर्थन किया।
- उन्होंने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों के साथ करीबी संबंध बनाए और उनका विकास सुनिश्चित करने के लिए कूटनीतिक प्रयास किए।
4. शांति और संघर्ष समाधान (Peace and Conflict Resolution)
- नेहरू की विदेश नीति का एक और महत्वपूर्ण पहलू था शांति का समर्थन और संघर्ष समाधान के लिए कूटनीतिक प्रयास। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों का समर्थन किया और वैश्विक मुद्दों पर शांति और सहयोग के लिए सक्रिय रूप से काम किया।
- नेहरू के नेतृत्व में भारत ने हमेशा अंतरराष्ट्रीय संघर्षों का हल शांति और कूटनीति के माध्यम से खोजने का प्रयास किया, न कि सैन्य विकल्प को अपनाया।
5. वैश्विक भूमिका (Global Role)
- नेहरू ने भारत को वैश्विक मंच पर एक प्रमुख और सम्मानित भूमिका दिलाई। उन्होंने भारत को न केवल एशिया में, बल्कि पूरी दुनिया में एक स्वतंत्र और प्रभावशाली शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी विदेश नीति ने भारतीय कूटनीति को एक स्थिर और सशक्त दिशा दी।
नेहरूवियन विदेश नीति की सीमाएँ (Limitations of Nehruvian Foreign Policy)
हालांकि नेहरूवियन विदेश नीति ने भारत को वैश्विक मंच पर एक सम्मानजनक स्थान दिलाया, लेकिन इसके साथ कुछ सीमाएँ भी थीं, जिनकी वजह से भारत को विभिन्न संकटों का सामना करना पड़ा। नेहरूवियन विदेश नीति की कुछ प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं:
1. चीन के साथ सीमा विवाद और युद्ध (China Border Dispute and War)
- पंडित नेहरू का चीन के प्रति अत्यधिक विश्वास उनके विदेश नीति की एक बड़ी सीमा बन गया। उन्होंने चीन को एक शांतिपूर्ण और सहयोगी साझेदार माना, लेकिन 1962 में भारत-चीन युद्ध ने यह साबित कर दिया कि चीन के साथ भारत के रिश्ते इतने सशक्त नहीं थे जितना नेहरू ने उम्मीद की थी।
- चीन के साथ कश्मीर सीमा विवाद और तिब्बत के मामले में भारत की स्थिति कमजोर हो गई, जिससे नेहरू की विदेश नीति पर सवाल उठने लगे। चीन ने 1962 में भारतीय सीमा पर आक्रमण किया, जो नेहरू की विदेश नीति की एक बड़ी विफलता थी।
2. पाकिस्तान के साथ संबंधों में असफलता (Failure in Relations with Pakistan)
- नेहरू के नेतृत्व में भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का विवाद गहरा हो गया था। 1947 के विभाजन के बाद से कश्मीर विवाद हमेशा एक प्रमुख कूटनीतिक चुनौती बना रहा।
- हालांकि नेहरू ने पाकिस्तान के साथ कई बार समझौते करने की कोशिश की, लेकिन कश्मीर विवाद के कारण दोनों देशों के रिश्ते कभी स्थिर नहीं हो सके। पाकिस्तान के साथ 1965 का युद्ध और कश्मीर मुद्दे पर लगातार तनाव नेहरू की विदेश नीति की एक विफलता साबित हुए।
3. संयुक्त राष्ट्र में प्रभाव की कमी (Limited Influence in the United Nations)
- नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र को एक प्रभावी मंच माना, लेकिन भारत को संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता प्राप्त करने में कोई सफलता नहीं मिली।
- इसके अलावा, भारत के कई कूटनीतिक प्रयासों के बावजूद संयुक्त राष्ट्र के निर्णयों पर प्रभावी नियंत्रण नहीं बन सका, जिससे भारत के वैश्विक प्रभाव में सीमाएँ रहीं।
4. गुटनिरपेक्ष आंदोलन की सीमाएँ (Limitations of Non-Aligned Movement)
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) ने भारत को एक प्रमुख वैश्विक भूमिका दिलाई, लेकिन इसके कुछ सीमित परिणाम भी थे। यह आंदोलन कभी भी पूरी तरह से पश्चिमी और पूर्वी ब्लॉकों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सका।
- NAM के सदस्य देशों के बीच अक्सर मतभेद थे, और भारत के नेतृत्व में आंदोलन को कुछ देशों द्वारा विरोध का सामना भी करना पड़ा। कई बार NAM को प्रभावी रूप से कार्यान्वित करने में कठिनाई आई।
5. भारत की सैन्य स्थिति में कमजोरी (Weakness of India’s Military Position)
- नेहरू ने अपनी विदेश नीति में कूटनीतिक समाधान को प्राथमिकता दी, लेकिन सैन्य मामलों में भारत की स्थिति कमजोर रही। विशेषकर, 1962 के चीन-भारत युद्ध ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत की सेना पूरी तरह से तैयार नहीं थी।
- भारत के रक्षा क्षेत्र में निवेश की कमी और सैन्य बलों की कमजोर स्थिति ने नेहरू की विदेश नीति को चुनौती दी।
6. सामाजिक और आंतरिक समस्याएँ (Internal and Social Issues)
- नेहरू की विदेश नीति में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर जोर था, लेकिन आंतरिक मुद्दों जैसे गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक असमानता पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। ये समस्याएँ भारत की विदेशी नीति पर भी प्रभाव डालती थीं, क्योंकि आंतरिक अस्थिरता कभी-कभी विदेश नीति के उद्देश्यों को प्रभावित करती थी।
निष्कर्ष
नेहरूवियन विदेश नीति ने भारत को वैश्विक मंच पर एक स्वतंत्र और सम्मानित स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह नीति शांति, सहयोग, और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित थी, लेकिन इसकी सीमाएँ भी थीं। खासकर चीन और पाकिस्तान के साथ सीमा विवादों ने नेहरू की विदेश नीति की प्रभावशीलता को कमजोर किया। हालांकि, इसके बावजूद नेहरू की विदेश नीति भारतीय कूटनीति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण मानी जाती है।
FAQ
1. नेहरूवादी विदेश नीति क्या थी?
2. नेहरूवादी विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांत क्या थे?
3. गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) क्या था?
4. नेहरू की अमेरिका और सोवियत संघ से क्या नीति थी?