Performing Arts in Hindi
Performing Arts, Music, Dances, Drama, Puppetry
भारत में प्रदर्शन कला का ऐतिहासिक संरक्षण (Historical Patronage of Performing Arts in India)
भारत में प्रदर्शन कला, जैसे कि संगीत, नृत्य, नाटक और अन्य कला रूपों का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है। इन कला रूपों का संरक्षण और प्रोत्साहन समय-समय पर विभिन्न शासकों, सम्राटों और धार्मिक नेताओं द्वारा किया गया, जिन्होंने इन्हें अपनी संस्कृति और समाज का अभिन्न हिस्सा माना। भारतीय इतिहास में प्रदर्शन कला का संरक्षण कई प्रमुख राजवंशों और शासकों द्वारा किया गया, जिनका उद्देश्य न केवल कला का प्रचार-प्रसार करना था, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखना भी था।
1. प्राचीन भारत में कला का संरक्षण
- प्राचीन भारत में, विशेष रूप से मौर्य और गुप्त साम्राज्य के दौरान, कला और संस्कृति को बहुत बढ़ावा दिया गया। चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक महान जैसे सम्राटों ने न केवल स्थापत्य कला को बढ़ावा दिया, बल्कि संगीत और नृत्य के रूपों को भी संरक्षण दिया। अशोक के समय में बुद्ध धर्म का प्रचार हुआ, जिसके माध्यम से विभिन्न प्रकार के नृत्य और संगीत को धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल किया गया।
- गुप्त साम्राज्य (4वीं – 6वीं शती) में भारतीय कला और संस्कृति का सुनहरा युग माना जाता है। इस समय में नृत्य, संगीत और नाटक में एक नया आयाम जुड़ा। संस्कृत नाटकों की रचनाएँ, जैसे कि कालीदास के नाटक, संगीत और नृत्य के साथ इस समय के मुख्य कला रूप थे।
2. मध्यकालीन भारत में प्रदर्शन कला
- मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासकों के शासनकाल के दौरान भी कला और संस्कृति को संरक्षण मिला। विशेष रूप से दिल्ली सल्तनत और मुगल साम्राज्य में शासकों ने कला और संस्कृति को बढ़ावा दिया।
- मुगल सम्राट अकबर ने संस्कृत, फारसी, और हिंदी साहित्य का संरक्षण किया और संगीत व नृत्य को दरबार में सम्मानित स्थान दिया। अकबर के दरबार में कई प्रसिद्ध संगीतकार और नर्तक थे। अकबर की पत्नी जोआधार और दरबारी संगीतकार तानसेन का नाम प्रसिद्ध है।
- शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाल में भी कला का संरक्षण हुआ, हालांकि औरंगजेब के समय में धार्मिक कारणों से कुछ प्रतिबंध लगाए गए थे।
3. राजपूत और अन्य क्षेत्रीय शासकों द्वारा संरक्षण
- भारत में राजपूत शासकों ने भी प्रदर्शन कला के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के राजपूत शासकों ने नृत्य, संगीत और नाटकों को बढ़ावा दिया।
- जयपुर और उज्जैन जैसे नगरों में नृत्य और संगीत के गुरुकुल स्थापित किए गए, जहाँ कलाकार अपनी कला को और परिष्कृत करते थे।
- दक्षिण भारत में चोल, पाण्ड्य और विजयनगर साम्राज्य ने भी कला को प्रोत्साहित किया। वहाँ के दरबारों में नृत्य और संगीत का प्रमुख स्थान था, और प्रमुख संगीतकार और नर्तक उस समय के दरबारों में सम्मानित थे।
4. औपनिवेशिक काल में कला का संरक्षण
- औपनिवेशिक काल (18वीं – 20वीं शती) में ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय कला पर प्रभाव पड़ा, लेकिन इसके बावजूद भारतीय प्रदर्शन कला को जीवित रखने के प्रयास किए गए। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संस्कृति को विदेशी मानकर उसकी अनदेखी की, लेकिन भारत में विभिन्न स्थानों पर शासक और जमींदार वर्ग ने कला का संरक्षण जारी रखा।
- कैलकत्ता (कोलकाता) में संगीत और नृत्य के स्कूल स्थापित किए गए, जहाँ भारतीय संगीत और नृत्य के पारंपरिक रूपों को संरक्षित किया गया।
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, विशेष रूप से रवींद्रनाथ ठाकुर (रवींद्रनाथ ठाकुर) और जयदेव जैसे कलाकारों ने भारतीय संगीत और नृत्य को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रवींद्रनाथ ठाकुर ने रवींद्र संगीत को प्रमुखता दी, जो आज भी भारतीय संगीत का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
5. स्वतंत्रता के बाद प्रदर्शन कला का संरक्षण
- स्वतंत्रता के बाद भारतीय सरकार ने प्रदर्शन कला के संरक्षण के लिए कई संस्थाओं की स्थापना की। भारतीय संगीत नाटक अकादमी (1952), संगीत कला अकादमी, और भारत भवन जैसी संस्थाओं ने कला को बढ़ावा देने और संरक्षण करने के लिए कार्य किए।
- सार्क, UNESCO और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने भी भारतीय कला और संस्कृति को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने का काम किया।
- भारत सरकार ने विभिन्न पद्म पुरस्कारों (पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण) के माध्यम से कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने वाले कलाकारों को सम्मानित किया है।
निष्कर्ष
भारत में प्रदर्शन कला का ऐतिहासिक संरक्षण एक लंबी प्रक्रिया रही है, जिसमें विभिन्न शासकों, सम्राटों और समाजों का योगदान है। इन शासकों और संस्थाओं ने कला को न केवल एक मनोरंजन के रूप में देखा, बल्कि इसे धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग के रूप में संरक्षित किया। आज भी भारतीय प्रदर्शन कला का समृद्ध इतिहास और पारंपरिक कला रूपों का महत्व पूरी दुनिया में महसूस किया जाता है।
Concept of Performing Arts प्रदर्शन कला की अवधारणा
प्रदर्शन कला वह कला रूप है जिसे एक कलाकार या समूह द्वारा मंच पर प्रदर्शित किया जाता है। इसमें संगीत, नृत्य, नाटक, और अन्य कला रूप शामिल होते हैं, जिन्हें दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाता है। प्रदर्शन कला में मुख्य रूप से कला के विभिन्न रूपों का संयोजन होता है, जैसे कि शारीरिक अभिव्यक्ति, संगीत, संवाद, और दृश्य प्रभाव, जो दर्शकों के साथ एक प्रत्यक्ष अनुभव साझा करते हैं। इस कला का मुख्य उद्देश्य आनंद, शिक्षा, और सामाजिक या सांस्कृतिक संदेश देना होता है।
संगीत (Music)
संगीत मानव अभिव्यक्ति का एक प्राचीन और महत्वपूर्ण रूप है। यह एक कला है जिसमें ध्वनियों, तालों, और रागों का संयोजन किया जाता है ताकि एक सृजनात्मक, भावनात्मक और मानसिक प्रभाव डाला जा सके। संगीत को न केवल एक मनोरंजन के रूप में, बल्कि एक मानसिक और आत्मिक शांति के साधन के रूप में भी माना जाता है।
1. संगीत का इतिहास
- भारतीय संगीत का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा हुआ है, और इसकी जड़ें वेदों और उपनिषदों तक पहुंचती हैं। संवेदनात्मक संगीत और भावनात्मक अभिव्यक्ति भारतीय संगीत की विशेषता रही है।
- भारतीय संगीत मुख्य रूप से दो श्रेणियों में बांटा जाता है: शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत। शास्त्रीय संगीत में हिंदुस्तानी और Carnatic संगीत की दो प्रमुख शैलियाँ हैं।
2. संगीत के प्रकार
भारतीय संगीत के मुख्य प्रकारों में शामिल हैं:
- शास्त्रीय संगीत: यह संगीत का उच्चतम रूप माना जाता है, जो ठेठ शास्त्रीय सिद्धांतों और नियमों का पालन करता है। इसमें राग (melodic framework) और ताल (rhythmic cycle) का बहुत महत्व होता है।
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- हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत: यह उत्तर भारत में विकसित हुआ और इसमें राग और ताल का व्यापक प्रयोग होता है। प्रमुख शैलियाँ: द्रुपद, खयाल, ठुमरी, भजन आदि।
- Carnatic संगीत: यह दक्षिण भारत की शास्त्रीय संगीत परंपरा है, जिसमें राग, ताल, और लय की गहरी समझ होती है। प्रमुख शैलियाँ: कृति, नोटेशन आदि।
- लोक संगीत: यह क्षेत्रीय संगीत होता है, जो आमतौर पर लोक जीवन और जनसाधारण की भावनाओं को व्यक्त करता है। यह संगीत सामान्यत: पारंपरिक और सांस्कृतिक अवसरों पर प्रस्तुत किया जाता है। लोक संगीत में देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न शैलियाँ पाई जाती हैं, जैसे भातिय, संतवाणी, काव्य गीत, और फोक संगीत।
- गायन संगीत: इसमें मुख्य रूप से स्वर और गीत का प्रयोग होता है। गायन में भक्ति गीत, गज़ल, भजन, भक्ति संगीत, और राग आधारित गीतों का समावेश होता है।
- संगीत के अन्य रूप:
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- संगीत वाद्य: विभिन्न वाद्ययंत्रों का भी संगीत में महत्वपूर्ण स्थान होता है। इनमें सितार, संतूर, तबला, वीणा, हारमोनियम आदि शामिल हैं।
- संगीत नृत्य: यह एक मिश्रित कला रूप होता है, जिसमें संगीत और नृत्य दोनों का संगम होता है। जैसे कि भरतनाट्यम, कथक, कथकली, और ओडिसी।
3. संगीत के तत्व
- स्वर (Pitch): संगीत की ध्वनि की गहराई और ऊँचाई को स्वर कहते हैं।
- ताल (Rhythm): संगीत का वह भाग जिसमें ध्वनियों की गति और समय का निर्धारण होता है। ताल की एक संरचित इकाई होती है, जिसमें संगीत की लय होती है।
- राग (Melody): राग संगीत का वह हिस्सा है जिसमें निश्चित स्वर क्रम और विशिष्ट भावनाएँ व्यक्त की जाती हैं।
- लय (Tempo): संगीत के तीव्रता और गति को लय कहते हैं।
- स्वरूप (Form): संगीत के व्यवस्थित ढांचे को स्वरूप कहते हैं, जो किसी रचनात्मक या प्रदर्शनात्मक संरचना में होता है।
4. संगीत और समाज
- संगीत का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह न केवल मनोरंजन का एक माध्यम है, बल्कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सवों का भी अभिन्न हिस्सा है।
- संगीत जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता है, जैसे कि प्रेम, शांति, उत्सव, और दुःख। यह व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
- संगीत में अभिव्यक्ति की गहराई होती है, और यह समाज के विभिन्न वर्गों को एकजुट करने का कार्य भी करता है।
5. संगीत के शिक्षा और प्रशिक्षण का महत्व
- संगीत का अध्ययन और प्रशिक्षण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को उत्तेजित करता है। यह बच्चों के लिए एक संवेदनात्मक और बौद्धिक विकास का जरिया बन सकता है।
- भारत में संगीत को गुरुकुल पद्धति और संगीत विद्यालयों के माध्यम से सिखाया जाता है। इसके अलावा, संगीत समारोहों और प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया जाता है ताकि नए कलाकारों को प्रोत्साहन मिले।
निष्कर्ष
संगीत न केवल एक कला रूप है, बल्कि यह जीवन की धड़कन भी है। भारतीय संगीत की जड़ें अत्यंत प्राचीन हैं और इसकी विविधताएँ भारतीय समाज की सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा हैं। संगीत के माध्यम से मानवता की गहरी भावनाएँ, विचार, और संस्कृतियाँ व्यक्त होती हैं, जो न केवल लोक जीवन में, बल्कि धर्म, दर्शन और समाज के विभिन्न आयामों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
भारत के नृत्य (Dances of India)
भारत का नृत्य अत्यंत विविध और प्राचीन परंपरा से जुड़ा हुआ है। यह न केवल मनोरंजन का एक साधन है, बल्कि भारतीय संस्कृति और धार्मिकता का महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। भारतीय नृत्य शास्त्रीय और लोक शैली में विभाजित किया जा सकता है। प्रत्येक शैली की अपनी विशेषताएँ, रूप और उद्देश्य होते हैं। भारतीय नृत्य कला का प्रमुख उद्देश्य आत्म-अभिव्यक्ति, भावना और धार्मिकता का संचार करना होता है।
1. शास्त्रीय नृत्य (Classical Dance)
भारतीय शास्त्रीय नृत्य की परंपरा बहुत पुरानी है और यह भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। शास्त्रीय नृत्य में विभिन्न शास्त्रों और पद्धतियों का पालन किया जाता है। प्रमुख शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ हैं:
- भरतनाट्यम (Bharatanatyam): यह नृत्य शैली तमिलनाडु से उत्पन्न हुई और भारतीय शास्त्रीय नृत्य की एक महत्वपूर्ण शैली मानी जाती है। इसमें भंगिमा, नृत्य और भावनाओं का सुंदर मिश्रण होता है।
- कथक (Kathak): उत्तर भारत की यह शास्त्रीय नृत्य शैली तेज़ गति, चक्कर (स्पिन) और लयबद्धता के लिए प्रसिद्ध है। कथक नृत्य में भावनाओं की गहरी अभिव्यक्ति होती है और यह कथा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
- कथकली (Kathakali): यह केरल राज्य का प्रमुख नृत्य है, जिसमें नृत्य, अभिनय, संगीत और संवाद का संयोजन होता है। यह मुख्यतः धार्मिक कथाओं और महाकाव्यों पर आधारित होता है।
- ओडिसी (Odissi): ओडिसा की यह नृत्य शैली लयबद्धता, शारीरिक लचीलापन और शास्त्रीय रूप से प्रस्तुत होती है। ओडिसी में मुख्य रूप से देवी-देवताओं की कथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं।
- मणिपुरी (Manipuri): यह मणिपुर राज्य की नृत्य शैली है, जो शांति और सौंदर्य का प्रतीक मानी जाती है। इसमें भगवान श्री कृष्ण और राधा के जीवन की भावनाओं का चित्रण होता है।
- कुचिपुड़ी (Kuchipudi): यह आंध्र प्रदेश का प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है। इसमें नृत्य और अभिनय का मिश्रण होता है और इसमें भावनाओं का गहरा चित्रण किया जाता है।
- सत्त्रिया (Sattriya): यह असम का शास्त्रीय नृत्य है, जो धार्मिक और भक्ति भावनाओं पर आधारित होता है। यह नृत्य रूप भगवान के प्रति श्रद्धा और भक्ति को व्यक्त करता है।
2. लोक नृत्य (Folk Dance)
लोक नृत्य वह नृत्य होता है जो आम लोगों द्वारा सामाजिक और धार्मिक अवसरों पर किया जाता है। यह नृत्य शैली विशेष रूप से स्थानीय परंपराओं, उत्सवों और धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ी होती है। प्रमुख लोक नृत्य शैलियाँ हैं:
- गरबा (Garba): गुजरात का प्रसिद्ध नृत्य है जो विशेष रूप से नवरात्रि के दौरान किया जाता है। इसमें महिलाएं मंडल में घूमकर रचनात्मक रूप से नृत्य करती हैं।
- भांगड़ा (Bhangra): यह पंजाब का प्रमुख नृत्य है, जो उत्साह और आनंद से भरपूर होता है। यह नृत्य कृषि उत्सवों, शादी और अन्य खुशी के अवसरों पर किया जाता है।
- गिद्दा (Gidda): यह भी पंजाब का लोक नृत्य है, जो महिलाओं द्वारा किया जाता है और यह समूहों में किया जाता है।
- लावणी (Lavani): यह महाराष्ट्र का लोक नृत्य है, जो पारंपरिक ताजगी और उत्साह से भरा होता है। लावणी में तेज़ गति और भावनात्मक अभिव्यक्ति होती है।
- द्रापदी (Drapadi): यह राजस्थान का लोक नृत्य है, जो सामूहिक रूप से किया जाता है और इसमें विशेष रूप से रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन किया जाता है।
- कुल्लू नृत्य (Kullu Dance): यह हिमाचल प्रदेश का लोक नृत्य है, जो मुख्यतः विवाह और उत्सवों के दौरान होता है।
- कोलट्टम (Kolattam): यह तमिलनाडु का एक लोक नृत्य है, जिसमें स्टिक्स का उपयोग किया जाता है।
नाटक और रंगमंच (Drama and Theatre)
भारतीय नाटक और रंगमंच का इतिहास अत्यंत प्राचीन है, और यह भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। भारतीय रंगमंच का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संदेश देना भी होता है। नाटक का रूप और शैली समय के साथ बदलती रही है, लेकिन इसकी मूल उद्देश्य को हमेशा संरक्षित रखा गया है।
1. प्राचीन भारतीय रंगमंच (Ancient Indian Theatre)
भारतीय नाटक का इतिहास वेदों और पुराणों से जुड़ा हुआ है। भारतीय रंगमंच का प्रारंभ नाट्यशास्त्र से हुआ, जिसे भरतमुनि ने लिखा था। नाट्यशास्त्र में नाटक की संरचना, अभिनय, संगीत, नृत्य और भावनाओं के माध्यम से कथा का प्रसारण करने के नियमों का वर्णन किया गया है।
- नाट्यशास्त्र: यह भारतीय नाट्य कला का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें नृत्य, संगीत, अभिनय और रंगमंच के नियमों का विवरण दिया गया है। इसमें अभिनय के अलग-अलग अंगों और भावनाओं को दर्शाने के लिए विशिष्ट रूप से गाइडलाइंस दी गई हैं।
2. काव्य नाटक (Poetic Drama)
काव्य नाटक भारतीय नाटक का एक प्रमुख रूप है, जिसमें कविता और संवाद का सुंदर मिश्रण होता है। कालीदास के प्रसिद्ध नाटक “शकुंतलम्” और “विक्रमोर्वशीयम” इस श्रेणी के उदाहरण हैं, जिनमें भावनाओं और दृश्य वर्णन के माध्यम से कहानी का प्रवाह होता है।
3. मध्यकालीन भारतीय नाटक (Medieval Indian Theatre)
मध्यकाल में भारतीय रंगमंच में धार्मिक नाटकों का विकास हुआ। इसमें रामलीला और कृष्णलीला जैसे धार्मिक नाटक शामिल थे, जो प्रमुख रूप से मंदिरों और धार्मिक अवसरों पर खेले जाते थे।
4. आधुनिक भारतीय रंगमंच (Modern Indian Theatre)
ब्रिटिश काल के दौरान भारतीय नाटक में नए बदलाव आए। भारतीय रंगमंच में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को प्रदर्शित करने का एक नया रूप विकसित हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र, महादेवी वर्मा, विक्रम शेखर जैसे नाटककारों ने भारतीय रंगमंच को नए आयाम दिए।
5. समकालीन भारतीय रंगमंच (Contemporary Indian Theatre)
आजकल भारतीय रंगमंच में आधुनिक सामाजिक मुद्दों, स्वतंत्रता संग्राम, और राजनीतिक मुद्दों पर आधारित नाटक प्रस्तुत किए जाते हैं। इसमें प्रयोगात्मक नाटक, सशक्त नारीवादी नाटक, और अन्य नृत्य-नाटक सम्मिलित होते हैं। पद्मिनी कोल्हापुरे, नसीरुद्दीन शाह, और शेखर कपूर जैसे कलाकारों ने भारतीय रंगमंच को नई दिशा दी।
निष्कर्ष
भारत का नृत्य और रंगमंच न केवल सांस्कृतिक धरोहर हैं, बल्कि ये समाज के विभिन्न पहलुओं और मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यम भी हैं। नृत्य और नाटक भारतीय जीवन के अभिन्न अंग हैं, जो हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जड़ों को बनाए रखते हैं। ये कला रूप न केवल मनोरंजन करते हैं, बल्कि समाज में जागरूकता, शिक्षा और परिवर्तन लाने का भी कार्य करते हैं।
युद्धकला (Martial Arts)
भारत में युद्धकला का अत्यंत प्राचीन इतिहास है, जो न केवल शारीरिक शक्ति और कौशल का प्रदर्शन करती है, बल्कि आत्मरक्षा, मानसिक दृढ़ता, और अनुशासन को भी सिखाती है। भारतीय युद्धकला की कई प्राचीन शैलियाँ हैं, जिनका उद्देश्य न केवल युद्ध में सफलता प्राप्त करना था, बल्कि व्यक्ति के आत्मविकास और समाज में सम्मान प्राप्त करना भी था। भारतीय युद्धकला के मुख्य रूप से दो प्रकार के रूप होते हैं: हथियारों से युद्ध और हथियारों के बिना युद्ध।
1. कुंग फू (Kalaripayattu)
- कळरिपयट्टु (Kalaripayattu) भारत की सबसे प्राचीन युद्धकला में से एक है, जो केरल राज्य से उत्पन्न हुई है। यह शारीरिक अभ्यास, युद्धकला और चिकित्सीय तकनीकों का मिश्रण है। कळरिपयट्टु में लचीलेपन, गति, और शक्ति का विशेष ध्यान दिया जाता है। इसमें हाथों, पैरों, और अन्य अंगों से आक्रमण और रक्षा की तकनीकों का अभ्यास किया जाता है।
2. गुज्जर रक्षक (Gatka)
- गटका पंजाब की प्रसिद्ध युद्धकला है, जो सिख धर्म से जुड़ी हुई है। इसमें तलवार, ढाल, और अन्य पारंपरिक हथियारों के साथ युद्ध की तकनीकें सिखाई जाती हैं। गटका के अभ्यास में तेज़ी, सामरिक कौशल, और आत्मरक्षा पर जोर दिया जाता है। यह कला केवल शारीरिक क्षमता नहीं, बल्कि मानसिक एकाग्रता भी विकसित करती है।
3. मल्लयुद्ध (Mallakhamba)
- मल्लखंब एक प्रकार की युद्धकला है जो महाराष्ट्र और मध्य भारत के अन्य हिस्सों में प्रचलित रही है। इसमें व्यक्ति लकड़ी के खंबे पर चढ़कर विभिन्न युद्धकला के आसनों और शारीरिक क्रियाओं का अभ्यास करता है। यह शारीरिक क्षमता और संतुलन का एक शानदार अभ्यास है।
4. विद्या (Silambam)
- सिलम्बम तमिलनाडु की एक प्राचीन युद्धकला है, जिसमें लाठी के साथ युद्ध करने की तकनीक सिखाई जाती है। यह कला न केवल शारीरिक बल पर आधारित है, बल्कि इसमें रणनीति, गति और दिशा की समझ भी आवश्यक होती है।
5. चुआंग (Thang Ta)
- थांग ता मणिपुर की युद्धकला है, जिसमें लड़ाई के विभिन्न हथियारों जैसे भाले, तलवार, ढाल, और अन्य उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। यह कला मणिपुरी समाज की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है, और इसे आत्मरक्षा और सैन्य प्रशिक्षण के रूप में देखा जाता है।
6. कुश्ती (Wrestling)
- कुश्ती (कुस्ती) भारत की एक और प्राचीन युद्धकला है, जिसे विशेष रूप से पहलवानी के रूप में जाना जाता है। यह शक्ति, संतुलन, और मानसिक दृढ़ता पर आधारित है। भारत में विभिन्न प्रकार की कुश्ती शैलियाँ प्रचलित रही हैं, जैसे हल्ली (मल्लयुद्ध) और अखाड़ा कुश्ती।
कठपुतली (Puppetry)
भारत में कठपुतली (पपेटरी) की कला भी प्राचीन समय से ही अस्तित्व में रही है और यह भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कठपुतली का प्रयोग न केवल बच्चों के मनोरंजन के लिए होता था, बल्कि धार्मिक कथाएँ, सामाजिक संदेश और सांस्कृतिक परंपराओं को प्रस्तुत करने का एक प्रभावी तरीका भी रहा है। कठपुतली कला की विभिन्न शैलियाँ भारतीय राज्यों में अलग-अलग प्रकार से प्रचलित हैं, और हर क्षेत्र में इसकी अपनी विशेषताएँ और रूप होते हैं।
1. राजस्थान की कठपुतली (Rajasthani Puppetry)
- राजस्थान में कठपुतली कला अत्यधिक प्रसिद्ध है, खासकर गुड़ियापन (पपेट शो) के रूप में। यहाँ की कठपुतलियाँ अक्सर हाथों से नियंत्रित की जाती हैं और इनका प्रयोग परंपरागत कथाओं, लोककथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं को प्रस्तुत करने में किया जाता है। आधिवासी गांवों और त्योहारों में यह कला प्रचलित है।
2. कर्नाटकी कठपुतली (Karnataka Puppetry)
- कर्नाटका में यक्षगान के साथ कठपुतली का एक विशेष रूप है। यहाँ की कठपुतलियाँ अक्सर नृत्य और संगीत के साथ होती हैं और धार्मिक कथाएँ प्रस्तुत करती हैं। इस शैली में कठपुतलियाँ रंगीन और आकार में भिन्न होती हैं। यह कला कर्नाटका की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा मानी जाती है।
3. कश्मीर की कठपुतली (Kashmiri Puppetry)
- कश्मीर में कठपुतली कला का एक पारंपरिक रूप है, जिसमें कठपुतलियाँ कागज, लकड़ी, या कपड़े से बनाई जाती हैं। कश्मीरी कठपुतली कला में आमतौर पर धार्मिक और ऐतिहासिक कथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं, विशेषकर कश्मीर के भव्य महलों और राजाओं की कहानियाँ।
4. बंगाल की कठपुतली (Bengali Puppetry)
- पश्चिम बंगाल में सुतली कठपुतली या सुतली बांगला का प्रमुख रूप है। इसमें रस्सी और धागों से कठपुतली बनाई जाती है। यह कला विशेष रूप से बच्चों के बीच लोकप्रिय है और पारंपरिक बांगला लोककथाओं को जीवंत करती है। यह कला क्षेत्र में लोक जीवन और सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है।
5. ओडिशा की कठपुतली (Odisha Puppetry)
- ओडिशा में कठपुतली कला रथयात्रा जैसे धार्मिक उत्सवों का हिस्सा होती है। यहाँ पर जादु पट्टी नामक कठपुतली शैलियाँ प्रचलित हैं, जिनमें रंगीन कठपुतलियाँ परंपरागत ओडिशी नृत्य और संगीत के साथ होती हैं।
6. तमिलनाडु की कठपुतली (Tamil Nadu Puppetry)
- तमिलनाडु की कठपुतली कला में तामिल कठपुतली और कठपुतली नृत्य का संयोजन होता है। यहाँ के कठपुतलियों का इस्तेमाल आमतौर पर धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाता है।
निष्कर्ष
भारत में युद्धकला और कठपुतली दोनों ही सांस्कृतिक धरोहरों का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। जहां युद्धकला शारीरिक और मानसिक कौशल को बढ़ावा देती है, वहीं कठपुतली कला कहानी कहने, मनोरंजन और शिक्षा का एक प्रभावी माध्यम रही है। इन दोनों कला रूपों ने भारतीय समाज में अपनी अद्वितीय पहचान बनाई है और इनका संरक्षण और प्रचार-प्रसार हमारी सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
प्रश्न 1: भारत के सांस्कृतिक इतिहास के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें (UPSC प्रारंभिक परीक्षा 2018)
त्यागराज की अधिकांश कृतियाँ भगवान कृष्ण की स्तुति में भक्ति गीत हैं
त्यागराज ने कई नए रागों की रचना की
अन्नमाचार्य और त्यागराज समकालीन हैं
अन्नमाचार्य कीर्तन भगवान वेंकटेश्वर की स्तुति में भक्ति गीत हैं
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन सा सही है?
केवल 1 और 3
केवल 2 और 4
1, 2 और 3
2, 3 और 4
उत्तर: (b)
प्रश्न 2: निम्नलिखित युग्मों पर विचार करें: (UPSC प्रारंभिक परीक्षा 2018)
परंपरा —– राज्य
चापचर कुट उत्सव – मिजोरम
खोंगजोम पर्व गाथा – मणिपुर
थांग-ता नृत्य – सिक्किम
ऊपर दिए गए युग्मों में से कौन सा सही है/हैं?
केवल 1
1 और 2
केवल 3
2 और 3
उत्तर: (बी)
प्रश्न 3: मणिपुरी संकीर्तन के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार करें: (यूपीएससी प्रारंभिक परीक्षा 2017)
यह एक गीत और नृत्य प्रदर्शन है
इस प्रदर्शन में इस्तेमाल होने वाले एकमात्र संगीत वाद्ययंत्र झांझ हैं
यह भगवान कृष्ण के जीवन और कर्मों का वर्णन करने के लिए किया जाता है
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
1, 2 और 3
केवल 1 और 3
केवल 2 और 3
केवल 1
उत्तर: (ए)
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