Poona Pact in hindi
दबे हुए वर्गों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग (Demand for Political Representation of Depressed Classes)
भारत में सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों को अक्सर “दबे हुए वर्ग” या “अल्पसंख्यक वर्ग” के रूप में जाना जाता था। इन वर्गों में मुख्य रूप से अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ, और अन्य पिछड़े वर्ग आते थे। ब्रिटिश शासन के दौरान इन वर्गों को राजनीतिक रूप से प्रतिनिधित्व नहीं मिलता था और इनकी सामाजिक स्थिति भी अत्यंत दीन-हीन थी।
महात्मा गांधी और अन्य नेताओं ने इस स्थिति को सुधारने के लिए दबे हुए वर्गों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग उठाई। गांधी जी ने इस वर्ग की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार करने के लिए कई कदम उठाए। उनके नेतृत्व में दबे हुए वर्गों के लिए विशेष आरक्षण की मांग उठाई गई, ताकि इन वर्गों को मुख्यधारा में शामिल किया जा सके और उनके अधिकारों की रक्षा की जा सके।
कम्युनल अवार्ड 1932 (Communal Award 1932)
कम्युनल अवार्ड 1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड द्वारा प्रस्तुत किया गया था। इसका उद्देश्य भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यकों और अन्य समूहों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करना था। यह अवार्ड विशेष रूप से मुस्लिमों, सिखों, और दबे हुए वर्गों के लिए आरक्षित सीटों का प्रावधान करता था।
मुख्य विशेषताएँ:
- दबे हुए वर्गों के लिए अलग निर्वाचित प्रतिनिधित्व: कम्युनल अवार्ड के तहत, गांधी जी और अन्य नेताओं द्वारा दबे हुए वर्गों के लिए अलग निर्वाचित प्रतिनिधित्व की मांग की गई थी।
- मुस्लिमों, सिखों, और अन्य धार्मिक समूहों के लिए आरक्षण: यह अवार्ड मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य धार्मिक समुदायों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान करता था।
- प्रतिक्रियाएँ: इस अवार्ड के तहत, हिन्दू समुदाय में विरोध था, क्योंकि उन्होंने इसको हिन्दू समाज के विभाजन का कारण माना। विशेषकर महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया और इसे “विभाजनकारी” माना।
पुणे पैक्ट 1932 (Poona Pact 1932)
कम्युनल अवार्ड के बाद, महात्मा गांधी ने इसके खिलाफ अपना विरोध दर्ज किया। गांधी जी ने यह निर्णय लिया कि यदि दबे हुए वर्गों को अलग निर्वाचित प्रतिनिधित्व मिलेगा, तो यह हिन्दू समाज में और अधिक विभाजन पैदा करेगा। गांधी जी ने 1932 में पुणे के येरवडा जेल में अनशन किया, जिससे यह विवाद और भी गहरा हो गया।
मुख्य बिंदु:
- पुणे पैक्ट का निर्णय: गांधी जी का अनशन समाप्त करने के बाद, हिन्दू महासभा और ब्रिटिश सरकार ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसे पुणे पैक्ट कहा गया।
- आरक्षण का प्रावधान: पुणे पैक्ट के तहत, दबे हुए वर्गों के लिए अलग निर्वाचित प्रतिनिधित्व का प्रावधान खत्म कर दिया गया, लेकिन उन्हें चुनावी प्रतिनिधित्व में आरक्षण दिया गया। यह आरक्षण उन वर्गों को विधानसभा में विशेष सीटों पर बैठने का अधिकार देता था।
- समझौते का महत्व: पुणे पैक्ट ने हिन्दू समाज में एकता की भावना को बनाए रखा और दबे हुए वर्गों को राजनीतिक अधिकार भी दिए। इस समझौते ने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव किया और सामाजिक सुधारों की दिशा को प्रभावित किया।
पुणे पैक्ट की प्रमुख शर्तें:
- दबे हुए वर्गों को आरक्षित सीटें: पुणे पैक्ट के तहत, दबे हुए वर्गों को केंद्रीय विधानसभा और प्रांतीय विधानसभा में आरक्षित सीटें दी गईं।
- वोटिंग अधिकार: ये वर्ग अपने समुदाय के नेताओं को चुनने के लिए वोट कर सकते थे, लेकिन एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों के लिए भी मतदान करने का अधिकार था।
- सामाजिक न्याय की दिशा में एक कदम: पुणे पैक्ट ने भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया और विशेष रूप से दबे हुए वर्गों को राजनीतिक और सामाजिक अधिकार दिए।
निष्कर्ष
कम्युनल अवार्ड और पुणे पैक्ट भारतीय समाज में विभिन्न समुदायों के बीच राजनीतिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकताओं और दबे हुए वर्गों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के प्रयास थे। कम्युनल अवार्ड ने भारतीय समाज को एकजुट करने के बजाय विभाजित किया, जबकि पुणे पैक्ट ने हिन्दू समाज में एकता को बनाए रखते हुए दबे हुए वर्गों को प्रतिनिधित्व और आरक्षण का अधिकार दिया। यह घटना भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में कई सुधारों का आधार बनी।
नागरिक अवज्ञा आंदोलन की वापसी के बाद (Aftermath of Civil Disobedience Movement Withdrawal)
1931 में गांधी-इरविन समझौते के बाद महात्मा गांधी ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन को समाप्त करने का निर्णय लिया था। हालांकि, आंदोलन की वापसी के बाद भारतीय राजनीति में कई बदलाव आए।
मुख्य घटनाएँ:
- ब्रिटिश सरकार का दोहरा रवैया: ब्रिटिश सरकार ने गांधी-इरविन समझौते के तहत किए गए वादों को पूरी तरह से लागू नहीं किया, जिससे भारतीय जनता में असंतोष था।
- कांग्रेस का असंतोष: कांग्रेस ने महसूस किया कि ब्रिटिश सरकार ने समझौते के बावजूद भारत में वास्तविक राजनीतिक सुधार नहीं किए। कांग्रेस ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और 1935 में भारत सरकार अधिनियम को लेकर तैयारियां शुरू कीं।
- नए आंदोलन की शुरुआत: गांधी जी ने राजनीतिक सुधारों की दिशा में और दबाव बनाने के लिए नई रणनीतियाँ अपनाई, लेकिन 1937 के चुनावों के बाद कांग्रेस ने विधानसभा में बढ़त हासिल की और राज्य स्तर पर शासन करना शुरू किया।
1937 के चुनावों में कांग्रेस (Congress and the 1937 Election)
1937 में भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act 1935) के तहत भारत में चुनाव हुए थे। ये चुनाव भारतीय जनता के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर थे, क्योंकि इसके माध्यम से उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व का एक नया अवसर मिला।
मुख्य बिंदु:
- कांग्रेस का चुनावी प्रदर्शन: कांग्रेस ने चुनावों में जबरदस्त सफलता प्राप्त की। कांग्रेस ने प्रांतीय विधानसभाओं में अधिकांश सीटों पर जीत हासिल की, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, और बंगाल जैसे राज्यों में।
- मुस्लिम लीग की भूमिका: मुस्लिम लीग ने भी चुनावों में भाग लिया, लेकिन कांग्रेस को अधिकांश सीटें मिलीं। मुस्लिम लीग का प्रदर्शन अपेक्षाकृत कमजोर रहा, और वे कांग्रेस के मुकाबले पीछे रहे।
- राजनीतिक रणनीतियाँ: कांग्रेस ने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों और समुदायों को एकजुट करने के लिए सामाजिक और आर्थिक सुधारों की दिशा में काम किया।
- ब्रिटिश सरकार की स्थिति: ब्रिटिश सरकार ने इस चुनाव को एक महत्वपूर्ण कदम माना, लेकिन इसके बावजूद वह भारतीय नेताओं को पर्याप्त स्वायत्तता देने के लिए तैयार नहीं थी।
1937 के चुनाव के बाद कांग्रेस का शासन (Congress Rule in Provinces After the 1937 Election)
1937 के चुनावों के बाद, कांग्रेस ने विभिन्न प्रांतों में सरकार बनाई और भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय शुरू किया।
मुख्य विशेषताएँ:
- प्रांतीय शासन में कांग्रेस: कांग्रेस ने अधिकांश प्रांतों में शासन स्थापित किया और अपनी नीतियों को लागू करने का प्रयास किया। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, और अन्य राज्यों में कांग्रेस ने मजबूत सरकार बनाई।
- सामाजिक सुधार: कांग्रेस ने अपने शासनकाल के दौरान सामाजिक सुधारों पर जोर दिया। महिलाओं के अधिकार, शिक्षा, और अस्पृश्यता के खिलाफ कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान दिया गया।
- ब्रिटिश सरकार से तनाव: कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग करने के बजाय, अपनी नीतियों में स्वतंत्रता और स्वराज की मांग की। इससे ब्रिटिश सरकार के साथ तनाव बढ़ गया और कांग्रेस को और अधिक स्वतंत्रता की आवश्यकता महसूस हुई।
- दबाव और विरोध: कांग्रेस द्वारा लागू की गई कई नीतियों का विरोध हुआ, विशेष रूप से ब्रिटिश सरकार की नीतियों के खिलाफ। इस विरोध ने 1942 में “Quit India Movement” के रूप में नया मोड़ लिया।
- मुस्लिम लीग का विरोध: मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के शासन को विरोध किया और यह स्पष्ट किया कि वे एक अलग मुस्लिम राज्य की दिशा में काम कर रहे थे।
मुख्य समस्याएँ:
- सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ: कांग्रेस शासन के तहत कई सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ सामने आईं, जैसे गरीबी, भूख, और जातिवाद।
- ब्रिटिश सरकार के दबाव: ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस सरकारों को पूरी तरह से स्वायत्तता नहीं दी और कांग्रेस नेताओं के अधिकारों को सीमित किया।
- विभाजन की शुरुआत: कांग्रेस के शासन में मुस्लिम लीग का विरोध बढ़ा और यह भारतीय राजनीति में धर्म के आधार पर विभाजन के विचारों को बढ़ावा देने लगा।
निष्कर्ष
1937 के चुनावों ने भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ लाया। कांग्रेस ने प्रांतीय स्तर पर सफलता प्राप्त की और शासन में आने के बाद कई सामाजिक सुधारों की दिशा में कदम उठाए। हालांकि, कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच मतभेदों के कारण, भारत में राजनीतिक संकट और बढ़ गया। कांग्रेस की सफलता और शासन के दौरान विभिन्न समस्याएँ उत्पन्न हुईं, जिनका समाधान स्वतंत्रता संग्राम की आगे की लड़ाई में किया गया।
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