Princely States of India in hindi
नए राजकीय क्रम (New Princely Order) का उदय
ब्रिटिश शासनकाल में भारत में एक नए राजकीय क्रम की स्थापना हुई, जिसे “नए राजकीय क्रम” के नाम से जाना जाता है। यह प्रक्रिया 18वीं और 19वीं शताब्दी में हुई, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश क्राउन ने भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। यह नए प्रकार का राजकीय ढांचा राजनीतिक, आर्थिक, और प्रशासनिक परिवर्तनों का परिणाम था।
प्रमुख कारण:
- सैन्य और आर्थिक प्रभुत्व
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- ब्रिटिशों ने भारतीय राजाओं की सैन्य क्षमताओं को सीमित कर दिया।
- भारतीय रियासतों को ब्रिटिश सुरक्षा के तहत रखा गया और उनसे भारी कर वसूला गया।
- सहायक गठबंधन प्रणाली (Subsidiary Alliance)
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- लॉर्ड वेलेस्ली ने सहायक संधि प्रणाली को लागू किया।
- इस संधि के तहत, भारतीय राजाओं को ब्रिटिश सेना का खर्च उठाना पड़ता था और उनकी विदेश नीति पर ब्रिटिश नियंत्रण हो गया।
- राजाओं की शक्तियों का ह्रास
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- रियासतों को केवल सांकेतिक शासन के अधिकार दिए गए।
- उनकी प्रशासनिक और न्यायिक शक्तियों को ब्रिटिश प्रशासकों ने अपने नियंत्रण में ले लिया।
- डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स (हड़प की नीति)
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- लॉर्ड डलहौजी द्वारा पेश की गई इस नीति के तहत, उत्तराधिकारी की अनुपस्थिति में राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया जाता था।
- नवीन प्रशासनिक और राजनीतिक ढांचे का विकास
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- ब्रिटिशों ने रियासतों को केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली में जोड़ा।
- आधुनिक शिक्षा, कानून और संचार माध्यमों ने नए शासकों के विचारों और तौर-तरीकों को प्रभावित किया।
नए राजकीय क्रम के प्रभाव:
- राजकीय स्वतंत्रता का ह्रास
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- भारतीय रियासतों के स्वायत्त शासन का अंत हुआ।
- राजाओं को ब्रिटिश वायसराय और गवर्नर-जनरल के प्रति उत्तरदायी बना दिया गया।
- सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव
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- ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति का प्रसार हुआ।
- रियासतों में परंपरागत संरचनाएं कमजोर हुईं।
- आर्थिक निर्भरता
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- भारतीय रियासतों को ब्रिटिश आर्थिक नीतियों का पालन करना पड़ा।
- भारी कराधान और ब्रिटिश सामानों के आयात ने स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचाया।
- आधुनिक भारत की नींव
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- इस नई व्यवस्था ने आधुनिक भारत के राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे की नींव रखी।
- बाद में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारतीय रियासतें महत्वपूर्ण केंद्र बनीं।
निष्कर्ष:
“नए राजकीय क्रम” का उदय एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसने भारत की पारंपरिक राजनीतिक और सामाजिक संरचनाओं को गहराई से प्रभावित किया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने न केवल भारतीय रियासतों की स्वायत्तता को समाप्त किया, बल्कि उन्हें आधुनिक प्रशासनिक और आर्थिक ढांचे का हिस्सा बना दिया। हालांकि, यह प्रक्रिया भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणा बनी।
रियासतों को अधीन करने के लिए ब्रिटिश नीतियाँ
ब्रिटिशों ने भारतीय रियासतों को अपने नियंत्रण में लाने और उन्हें अधीन करने के लिए कई नीतियों और रणनीतियों का उपयोग किया। ये नीतियाँ भारतीय रियासतों की राजनीतिक स्वतंत्रता को समाप्त करने और उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रखने के लिए थीं।
1. सहायक संधि प्रणाली (Subsidiary Alliance)
- लॉर्ड वेलेस्ली ने 1798 में सहायक संधि प्रणाली की शुरुआत की।
- इस संधि के तहत, रियासतों को ब्रिटिश सेना की सुरक्षा लेनी पड़ती थी और इसके बदले उन्हें भारी कर चुकाना पड़ता था।
- रियासतों को अपनी विदेश नीति ब्रिटिशों के निर्देशानुसार चलानी पड़ती थी।
- इस नीति के कारण रियासतें ब्रिटिशों पर पूरी तरह निर्भर हो गईं।
2. डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स (हड़प की नीति)
- लॉर्ड डलहौजी ने 1848 में इस नीति को लागू किया।
- इस नीति के तहत, यदि किसी रियासत के राजा का उत्तराधिकारी नहीं होता था, तो उस राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया जाता था।
- इस नीति के तहत सतारा, झांसी, नागपुर और अवध जैसी रियासतों को ब्रिटिशों ने अपने कब्जे में ले लिया।
3. विलय और अधिग्रहण की नीति
- ब्रिटिशों ने कमजोर रियासतों का विलय करके उन्हें सीधे अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया।
- जिन रियासतों के शासक ब्रिटिश नीतियों का विरोध करते थे, उन्हें साजिश या युद्ध के माध्यम से हटाया गया।
4. ब्रिटिश रेजिडेंट की नियुक्ति
- रियासतों में ब्रिटिश रेजिडेंट (प्रशासक) की नियुक्ति की जाती थी, जो ब्रिटिश हितों की निगरानी करता था।
- रेजिडेंट के माध्यम से रियासतों की राजनीतिक और प्रशासनिक नीतियों को नियंत्रित किया गया।
5. कराधान और आर्थिक निर्भरता
- रियासतों को ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में समाहित किया गया।
- उन्हें भारी कर और संधि शुल्क के माध्यम से आर्थिक रूप से निर्भर बना दिया गया।
रियासतों पर राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव धीरे-धीरे रियासतों पर भी पड़ने लगा। 20वीं शताब्दी में रियासतों के अंदर जन जागरूकता बढ़ी, और वहां के लोगों ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना शुरू किया।
1. प्रारंभिक प्रभाव
- राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती चरण में रियासतें स्वतंत्र थीं, लेकिन धीरे-धीरे वहां भी स्वतंत्रता की मांग उठने लगी।
- ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों ने रियासतों में रहने वाले आम लोगों और प्रजामंडल संगठनों को प्रेरित किया।
2. प्रजामंडल आंदोलन
- रियासतों में रहने वाले लोगों ने अपने अधिकारों की मांग करते हुए प्रजामंडल आंदोलन शुरू किया।
- 1927 में अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजामंडल संघ की स्थापना हुई, जो बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गया।
- प्रजामंडल ने रियासतों में लोकतंत्र, नागरिक अधिकार और सामाजिक सुधारों की मांग की।
3. गांधी जी और कांग्रेस का प्रभाव
- महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलनों, जैसे असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन, ने रियासतों में भी जन जागरूकता बढ़ाई।
- रियासतों के युवा स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए।
4. 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन
- इस आंदोलन के दौरान रियासतों में भी बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए।
- कई रियासतों के शासकों ने आंदोलन को दबाने का प्रयास किया, लेकिन जनता ने ब्रिटिश और रियासती शासकों का विरोध जारी रखा।
5. रियासतों का भारत में विलय
- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रयासों से रियासतों का भारत में विलय संभव हुआ।
- 1947-48 में अधिकांश रियासतें स्वेच्छा से भारतीय संघ में शामिल हो गईं।
निष्कर्ष
ब्रिटिश नीतियों ने रियासतों को कमजोर और निर्भर बना दिया, लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव से इन रियासतों के अंदर भी स्वतंत्रता और लोकतंत्र की भावना जागी। अंततः ये रियासतें भारतीय संघ का हिस्सा बनीं, और इससे एक मजबूत और एकीकृत भारत का निर्माण संभव हुआ।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की रियासतों के प्रति नीति
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने आरंभिक वर्षों में रियासतों के प्रति सहायक और समावेशी नीति अपनाई। कांग्रेस ने रियासतों को स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा मानते हुए, उनके शासकों और जनता से सहयोग की उम्मीद की। हालांकि, समय के साथ कांग्रेस की नीति में कुछ बदलाव आया, खासकर जब रियासतों के शासकों ने ब्रिटिश शासन के साथ गठबंधन किया और स्वतंत्रता संग्राम को दबाने में उनका सहयोग किया।
1. रियासतों के साथ समन्वय
- कांग्रेस ने शुरुआत में रियासतों के शासकों को ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता के लिए समझाने का प्रयास किया।
- रियासतों के शासकों से अपेक्षाएँ थीं कि वे ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ कांग्रेस के आंदोलन में शामिल हों।
- कांग्रेस ने रियासतों के प्रजामंडल, जो जनता के हितों की रक्षा करने के लिए बने थे, के साथ सहयोग बढ़ाने की कोशिश की।
2. रियासतों की स्वायत्तता और उनके अधिकार
- कांग्रेस ने हमेशा रियासतों के शासकों के अधिकारों का सम्मान किया, लेकिन यह भी माना कि रियासतों की जनता के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए।
- कांग्रेस ने रियासतों में लोकतांत्रिक सुधारों की आवश्यकता को महसूस किया और वहाँ के शासकों से जनता के अधिकारों की रक्षा करने की अपील की।
- रियासतों में कई जगहों पर कांग्रेस और प्रजामंडल ने मिलकर प्रशासनिक और सामाजिक सुधारों की दिशा में काम किया।
3. रियासतों के शासकों के साथ टकराव
- 1930 और 1940 के दशक में, जब कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम को और तेज किया, तो रियासतों के शासकों और कांग्रेस के बीच मतभेद बढ़ने लगे।
- कई रियासतों के शासकों ने कांग्रेस के आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार का साथ दिया।
- कांग्रेस ने रियासतों के शासकों पर दबाव डालने के लिए जन आंदोलन शुरू किए, लेकिन रियासतों में ब्रिटिश प्रभुत्व के कारण ये संघर्ष असफल रहे।
4. भारत छोड़ो आंदोलन और रियासतों की भूमिका
- 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, कांग्रेस ने रियासतों में भी ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता की मांग की।
- हालांकि, रियासतों के शासकों ने ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों को दबाने में सहयोग किया, लेकिन जनता ने संघर्ष जारी रखा।
रियासतों के लिए संघ योजना (Federation Scheme)
रियासतों के साथ संबंधों को सुलझाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कई योजनाएं बनाई। इनमें से एक महत्वपूर्ण योजना “फेडरेशन योजना” थी, जिसका उद्देश्य रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करना और एक केंद्रीय सरकार के तहत रियासतों और प्रांतों को एक साथ लाना था।
1. Government of India Act, 1935 और फेडरेशन योजना
- 1935 के भारतीय शासन अधिनियम के तहत, ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संघ का गठन करने की योजना बनाई।
- इस योजना के तहत, भारतीय प्रांतों और रियासतों को केंद्रीय सरकार में हिस्सेदारी दी गई थी।
- हालांकि, रियासतों को स्वेच्छा से संघ में शामिल होने का अधिकार था, और अधिकांश रियासतों ने इसमें शामिल होने से इनकार किया।
- फेडरेशन योजना में रियासतों को एक अलग वर्ग में रखा गया था, जिसमें उन्हें संघ में शामिल होने या न होने का विकल्प था।
2. फेडरेशन योजना का उद्देश्य और सीमाएँ
- इस योजना का उद्देश्य भारत में एक एकीकृत संघ की स्थापना करना था, जिसमें रियासतों और प्रांतों दोनों को समान प्रतिनिधित्व मिलता।
- लेकिन, रियासतों के शासकों ने अपनी स्वायत्तता को बनाए रखने की इच्छा व्यक्त की, जिसके कारण यह योजना प्रभावी नहीं हो पाई।
- रियासतों के शासकों को यह चिंता थी कि केंद्रीय सरकार में शामिल होने से उनकी सत्ता कम हो जाएगी, इसलिए अधिकांश रियासतों ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया।
3. रियासतों का भारत में विलय
- भारतीय स्वतंत्रता के बाद, सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में रियासतों का भारत में विलय सुनिश्चित किया गया।
- रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने के लिए “विलय” की प्रक्रिया शुरू की गई, जिसमें रियासतों के शासकों से बातचीत की गई और उन्हें भारतीय संविधान के तहत शामिल होने के लिए राजी किया गया।
- इस प्रक्रिया में प्रमुख रियासतों जैसे हैदराबाद, जम्मू और कश्मीर, और जूनागढ़ को भारतीय संघ में शामिल करने में कठिनाई आई, लेकिन अंततः ये सभी रियासतें भारतीय संघ का हिस्सा बनीं।
निष्कर्ष
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की रियासतों के प्रति नीति शुरू में समन्वय और सुधारों की थी, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष के दौरान रियासतों के शासकों की भूमिका पर विरोध और मतभेद बढ़े। फेडरेशन योजना का उद्देश्य रियासतों को भारतीय संघ में लाना था, लेकिन रियासतों के शासकों ने अपनी स्वायत्तता की रक्षा की। स्वतंत्रता संग्राम और विलय की प्रक्रिया के दौरान, रियासतों का भारतीय संघ में समावेश हुआ, जो भारत के एकीकृत राज्य के निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण था।
लुधियाना सत्र (1939) – अखिल भारतीय राज्य जन परिषद
अखिल भारतीय राज्य जन परिषद का लुधियाना सत्र 1939 में महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह सत्र रियासतों के लोगों के बीच ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम की चेतना को बढ़ाने और रियासतों में लोकतांत्रिक सुधारों की दिशा में एक अहम कदम था।
1. लुधियाना सत्र का उद्देश्य
- लुधियाना सत्र का उद्देश्य भारतीय रियासतों में लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन को और तेज करना था।
- इस सत्र में रियासतों के लोगों को कांग्रेस के साथ मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष में भाग लेने के लिए प्रेरित किया गया।
- यह सत्र कांग्रेस और प्रजामंडल के बीच एक गठबंधन के रूप में था, जिसमें रियासतों के नागरिकों को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया गया।
2. मुख्य निर्णय और मांगें
- सत्र में रियासतों के शासकों से यह मांग की गई कि वे जनता को राजनीतिक अधिकार दें और उनके शासन में लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना करें।
- सत्र में यह भी कहा गया कि रियासतों में प्रजामंडल और अन्य राजनीतिक समूहों को अधिक अधिकार मिलने चाहिए ताकि वे रियासतों के लोगों के लिए स्वराज की लड़ाई लड़ सकें।
- इसके अलावा, यह सत्र ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट होने और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए रियासतों की सहभागिता बढ़ाने के उद्देश्य से आयोजित किया गया।
3. प्रमुख नेताओं की भूमिका
- इस सत्र में प्रमुख नेताओं ने भाग लिया, जिनमें कांग्रेस के नेताओं और प्रजामंडल के प्रतिनिधि शामिल थे।
- इस सत्र में सरदार वल्लभभाई पटेल ने रियासतों के शासकों से लोकतांत्रिक सुधारों की बात की, जबकि जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस ने रियासतों में जन जागरूकता फैलाने पर जोर दिया।
क्विट इंडिया आंदोलन और रियासतें
क्विट इंडिया आंदोलन (1942) भारत छोड़ो आंदोलन के रूप में 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ था। यह आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्य से भारत की तत्काल स्वतंत्रता की मांग को लेकर किया गया था। रियासतों में भी यह आंदोलन फैलने लगा, लेकिन रियासतों के शासकों ने इस आंदोलन को दबाने की पूरी कोशिश की।
1. क्विट इंडिया आंदोलन का रियासतों पर प्रभाव
- रियासतों में, जहां आम जनता ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष कर रही थी, वहीं रियासतों के शासकों ने ब्रिटिश सरकार का साथ दिया।
- रियासतों में जन जागरूकता बढ़ी, और जनता ने रियासतों के शासकों के खिलाफ प्रदर्शन किए। हालांकि, रियासतों के शासकों ने इन आंदोलनों को कुचलने के लिए ब्रिटिश सेना का सहयोग लिया।
- रियासतों के प्रमुख शासकों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए सैनिक बल का इस्तेमाल किया, लेकिन रियासतों के भीतर स्वतंत्रता की भावना निरंतर बढ़ती गई।
2. प्रजामंडल और रियासतों का योगदान
- रियासतों में प्रजामंडल ने विशेष भूमिका निभाई। यह एक संगठन था जो रियासतों में लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए कार्य कर रहा था।
- प्रजामंडल ने रियासतों में स्वतंत्रता संग्राम को मजबूती दी और लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संगठित किया।
- रियासतों में प्रजामंडल के आंदोलनों के कारण, कई शासकों को अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करना पड़ा। हालांकि, अधिकांश शासकों ने ब्रिटिश शासन के साथ अपने रिश्ते बनाए रखे।
3. रियासतों में आंदोलनों की प्रतिक्रिया
- हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर जैसी बड़ी रियासतों में ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों ने जोर पकड़ा।
- इन रियासतों में कांग्रेस और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा विरोध प्रदर्शन किए गए, लेकिन शासकों ने इन आंदोलनों को दबाने के लिए ब्रिटिश सत्ता का सहारा लिया।
- रियासतों के भीतर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और प्रजामंडल के नेतृत्व में आंदोलनों का आगाज हुआ, जिनका उद्देश्य रियासतों के शासकों से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग प्राप्त करना था।
4. रियासतों का भारत छोड़ो आंदोलन में योगदान
- जबकि रियासतों के शासक ब्रिटिश साम्राज्य के साथ खड़े थे, रियासतों की जनता ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया।
- कई रियासतों के नेताओं ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और रियासतों में संघर्षों को बढ़ाया। उदाहरण के लिए, झांसी, नागपुर, और ग्वालियर जैसे क्षेत्रों में आंदोलनकारियों ने ब्रिटिश विरोधी संघर्षों में हिस्सा लिया।
निष्कर्ष
क्विट इंडिया आंदोलन के दौरान रियासतों के शासकों की भूमिका मिश्रित थी। जहां एक ओर शासकों ने ब्रिटिश साम्राज्य का साथ दिया, वहीं दूसरी ओर रियासतों की जनता ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया। लुधियाना सत्र और क्विट इंडिया आंदोलन ने रियासतों में जन जागरूकता को बढ़ाया और रियासतों के शासकों के खिलाफ संघर्ष की जड़ें मजबूत की। हालांकि, रियासतों के शासकों ने ब्रिटिश सत्ता के साथ अपने गठबंधन को बनाए रखा, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम की भावना ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में गहरी जड़ें जमा लीं।
रियासतों का भारतीय संघ में विलय (Integration of Princely States)
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बाद 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप को दो भागों में बांटने का निर्णय लिया गया – एक भारत और दूसरा पाकिस्तान। स्वतंत्रता के साथ ही भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती रियासतों का भारतीय संघ में विलय करना था। भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग 565 रियासतें थीं, जो ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत थीं, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य से अलग थीं। इन रियासतों के शासकों को यह अधिकार था कि वे भारतीय संघ या पाकिस्तान में से किसी में भी शामिल हो सकते थे, या फिर वे स्वतंत्र रह सकते थे।
1. सरदार वल्लभभाई पटेल का नेतृत्व
- रियासतों के भारतीय संघ में विलय के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल ने निर्णायक भूमिका निभाई।
- पटेल ने भारत की एकता को सुनिश्चित करने के लिए रियासतों के शासकों से बातचीत की और उन्हें भारतीय संघ में शामिल होने के लिए राजी किया।
- उनके नेतृत्व में भारत सरकार ने रियासतों के शासकों से संवाद किया और उन्हें भारतीय संविधान के तहत स्वीकृति देने के लिए प्रेरित किया।
2. भारत में विलय की प्रक्रिया
- 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, रियासतों के विलय की प्रक्रिया शुरू की गई।
- रियासतों के शासकों से एक दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करवाए गए, जिसे “विलय पत्र” (Instrument of Accession) कहा जाता था।
- इस पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद, रियासतें भारतीय संघ का हिस्सा बन गईं। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे और रणनीति के तहत पूरी की गई, जिससे किसी प्रकार की राजनीतिक अस्थिरता का सामना नहीं करना पड़ा।
3. मुख्य रियासतों का विलय
- जम्मू और कश्मीर: यह रियासत भारत के उत्तरी सीमा पर स्थित थी और इसके शासक ने पाकिस्तान से जुड़ने की इच्छा जताई थी। लेकिन, भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर के महाराजा को भारत में विलय के लिए राजी किया, जिसके बाद भारत ने भारतीय सैनिकों को जम्मू और कश्मीर में भेजा और यह रियासत भारतीय संघ में शामिल हो गई।
- हैदराबाद: यह रियासत दक्षिण भारत में स्थित थी और इसके शासक ने स्वतंत्रता की चाहत दिखाई। लेकिन, भारतीय सेना ने “ऑपरेशन पोलो” के तहत हैदराबाद का सैनिक अधिग्रहण किया, और यह रियासत भारतीय संघ में शामिल हो गई।
- नवाबों का हैदराबाद और जूनागढ़: जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया था, लेकिन इसके बाद भारतीय सरकार ने वहां सैनिक भेजे और जूनागढ़ को भारत में मिलाया।
- गोवाः गोवा और दमन-दीव, पुर्तगाली उपनिवेश थे, जिन्हें 1961 में भारतीय सेना ने पुर्तगाल से मुक्त कराकर भारतीय संघ में शामिल कर लिया।
4. निहित रणनीतियाँ और कूटनीतिक प्रयास
- रियासतों के विलय के लिए भारतीय सरकार ने कूटनीतिक उपायों का भी सहारा लिया।
- विशेष संवाददाता, जिन्हें “नौकरशाही और कूटनीतिक दल” कहा जाता था, ने रियासतों के शासकों से बातचीत की और उन्हें भारत में शामिल होने के फायदे समझाए।
- भारतीय संघ में रियासतों का समावेश भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह भारतीय एकता और अखंडता को सुनिश्चित करता था।
- भारतीय संविधान के अंतर्गत, रियासतों को व्यक्तिगत रूप से शासकों द्वारा शासित होने की स्वायत्तता दी गई, लेकिन केंद्रीय सरकार की नीति और नियंत्रण का पालन करना अनिवार्य था।
5. विलय के विरोध के परिणाम
- कुछ रियासतों के शासकों ने विलय की प्रक्रिया का विरोध किया।
- जैसे नवजोध (नवग्रह), कश्मीर, और हैदराबाद में भारतीय सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए। लेकिन सरकार ने इन्हें धैर्यपूर्वक सुलझाया और कई मामलों में सेना की मदद ली।
- कुछ रियासतों ने स्वतंत्रता की इच्छा व्यक्त की, लेकिन भारत सरकार ने उनका सशक्त और शांतिपूर्ण तरीके से विलय किया।
6. भारत में राजनीतिक एकता की स्थापना
- रियासतों के विलय ने भारत में राजनीतिक एकता की स्थापना को सुनिश्चित किया।
- यह भारतीय संघ के एकीकृत ढांचे का महत्वपूर्ण हिस्सा था और इससे भारतीय एकता को मजबूती मिली।
- रियासतों के विलय की प्रक्रिया में सरदार पटेल की कूटनीति और नेतृत्व की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही, जिसने भारत के संघीय ढांचे को सुदृढ़ किया।
निष्कर्ष
रियासतों का भारतीय संघ में विलय एक जटिल और चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया थी, जिसे सही दिशा में सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में सफलतापूर्वक पूरा किया गया। यह प्रक्रिया भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण कड़ी थी और भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता के लिए एक ठोस आधार बनी। रियासतों के विलय ने भारतीय संघ को मजबूत किया और समृद्धि की ओर अग्रसर किया।
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