Southern Kingdoms in Medieval India in hindi

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Southern Kingdoms in Medieval India in hindi

दक्षिण भारत के राज्य (Southern Kingdoms) – मध्यकालीन भारत में:

परिचय: मध्यकालीन भारत में दक्षिण भारत का इतिहास भी उतना ही समृद्ध और विविधता से भरपूर था जितना कि उत्तर भारत का। यहाँ कई प्रमुख राज्य और वंशों का अस्तित्व था, जिन्होंने न केवल राजनीति और सैन्य क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ी, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और वास्तुकला में भी महान योगदान दिया। दक्षिण भारत में प्रमुख दक्षिणी राज्य थे – चोल वंश, चालुक्य वंश, पल्लव वंश, राष्ट्रकूट वंश, और होयसाल वंश। इन राज्यों का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक महत्व UPSC के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

  1. चोल वंश (Chola Dynasty):

इतिहास और उत्पत्ति: चोल वंश दक्षिण भारत का एक प्रमुख और प्राचीन वंश था, जिसकी शुरुआत लगभग 3वीं शताबदी ईसा पूर्व से मानी जाती है। चोल वंश का वास्तविक उत्कर्ष 9वीं शताबदी से लेकर 13वीं शताबदी तक हुआ था। चोलों का साम्राज्य तमिलनाडु से लेकर श्रीलंका, बर्मा और यहां तक कि मलय प्रायद्वीप तक फैल गया था।

प्रमुख शासक और योगदान:

  • राजराजा चोल (985–1014): राजराजा चोल ने चोल साम्राज्य की नींव को मजबूत किया और उसे समुद्र के रास्ते व्यापार और सैन्य दोनों में एक शक्तिशाली साम्राज्य में तब्दील कर दिया।
  • राजेन्द्र चोल (1014–1044): राजेन्द्र चोल ने चोल साम्राज्य के विस्तार को और अधिक बढ़ाया। उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया में कई विजय प्राप्त की और ‘सिंहल द्वीप’ (श्रीलंका) और ‘केम्बोडिया’ में अपनी विजय ध्वजा फहराई।
  • चोल साम्राज्य का प्रशासन: चोल शासकों का प्रशासन सशक्त और कुशल था। वे समृद्ध किलों, बंदरगाहों और व्यापारिक मार्गों को नियंत्रित करते थे। समुद्री व्यापार में उनका विशेष योगदान था। चोल साम्राज्य के समय में तमिल साहित्य, वास्तुकला और धर्म में उत्कृष्टता थी।
  • धर्म और संस्कृति: चोल वंश ने हिन्दू धर्म को बढ़ावा दिया, विशेष रूप से शिव पूजा। चोल किलों और मंदिरों का स्थापत्य कला और स्थापत्यशास्त्र में विशेष महत्व था। तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर इसका प्रमुख उदाहरण है, जो आज भी विश्व धरोहर स्थल के रूप में जाना जाता है।
  1. चालुक्य वंश (Chalukya Dynasty):

इतिहास और उत्पत्ति: चालुक्य वंश का इतिहास लगभग 6वीं शताबदी से जुड़ा हुआ है। चालुक्य शासकों ने दक्षिण भारत में एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया, जिसका मुख्यालय बैंगलोर और कर्नाटक क्षेत्र में था। वे राजस्थानी क्षेत्र के बाद दक्षिण भारत के प्रमुख साम्राज्य बन गए।

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प्रमुख शासक और योगदान:

  • कृष्णा I (राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष): चालुक्य वंश के शासक कृष्ण I ने राष्ट्रकूटों के खिलाफ कई युद्ध लड़े। उनका शासन भारत के वास्तुकला और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध था।
  • विक्रमादित्य VI: विक्रमादित्य VI ने कर्नाटक में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को बढ़ाया। उनकी राजनीति और सैन्य क्षमता के कारण वे बहुत प्रसिद्ध हुए।
  • चालुक्य स्थापत्य: चालुक्य काल में विशेष रूप से बाघ, ऐहोल और पल्लापुरम में स्थापत्य कला का उत्तम उदाहरण मिलता है। इस समय के शिलालेखों में वे धार्मिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है।
  1. पल्लव वंश (Pallava Dynasty):

इतिहास और उत्पत्ति: पल्लव वंश का साम्राज्य मुख्यतः दक्षिणी भारत के कांची (वर्तमान तमिलनाडु) और आंध्र प्रदेश क्षेत्र में था। पल्लवों का शासन 6वीं शताबदी से लेकर 9वीं शताबदी तक था। पल्लवों का शासन दक्षिण भारत में हिन्दू धर्म के प्रसार और कला के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण था।

प्रमुख शासक और योगदान:

  • महेंद्रवर्मन I (7वीं शताबदी): महेंद्रवर्मन I ने पल्लव वंश की नींव को मजबूत किया और अपने शासन में कांचीपुरी के किलों और मंदिरों का निर्माण कराया।
  • नरसिंहवर्मन I: नरसिंहवर्मन I पल्लव वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक था, जिसने चalukyas के साथ कई युद्धों में सफलता प्राप्त की। उन्होंने कांची में कई मंदिरों का निर्माण करवाया। उनके समय में पल्लव साम्राज्य ने महान सांस्कृतिक उत्थान देखा।
  • सांस्कृतिक और स्थापत्य योगदान: पल्लव वंश का स्थापत्य कला में योगदान अत्यधिक था, विशेष रूप से रॉक-कट मंदिरों के निर्माण में। कांची और महाबलीपुरम के रॉक-कट मंदिर और स्थलों का वास्तुशिल्प कला में महत्वपूर्ण स्थान है।
  1. राष्ट्रकूट वंश (Rashtrakuta Dynasty):

इतिहास और उत्पत्ति: राष्ट्रकूट वंश का साम्राज्य 8वीं से 10वीं शताबदी तक दक्षिण भारत में महत्वपूर्ण था। राष्ट्रकूटों का मुख्यालय दखिन में स्थित था और उनका साम्राज्य कर्नाटक से लेकर महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर भारत तक फैला हुआ था।

प्रमुख शासक और योगदान:

  • धृव पल्लव (कृष्णा I): कृष्णा I ने दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट साम्राज्य की शक्ति को मजबूत किया और कई युद्धों में विजय प्राप्त की।
  • अम्बा वर्मन: अम्बा वर्मन के शासनकाल में सैकड़ों किलों और मंदिरों का निर्माण हुआ।
  • धर्म और संस्कृति: राष्ट्रकूट शासकों ने कला, संस्कृति और शिक्षा को बढ़ावा दिया। उनके शासन में धार्मिक स्थलों और पवित्र ग्रंथों का निर्माण किया गया।
  1. होयसाल वंश (Hoysala Dynasty):

इतिहास और उत्पत्ति: होयसाल वंश ने 11वीं शताबदी से लेकर 14वीं शताबदी तक कर्नाटक और आंध्र प्रदेश क्षेत्र में शासन किया। इस वंश के शासक कला, धर्म और युद्ध कौशल में प्रमुख थे।

प्रमुख शासक और योगदान:

  • विरोचन वर्मन (अर्थकृष्ण): होयसाल वंश के शासक ने अपने शासन में कर्नाटका में ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थलों का निर्माण किया।
  • विश्णुवर्धन और सोमेश्वर: इन शासकों के समय में होयसाल साम्राज्य कला, संस्कृति और स्थापत्य कला के क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त करने में सक्षम था।
  • होयसाल स्थापत्य: उनके द्वारा निर्मित मंदिर स्थापत्य कला में उत्कृष्ट माने जाते हैं। हलेबिड और बेलूर के मंदिर आज भी भारतीय वास्तुकला का महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।

निष्कर्ष: दक्षिण भारतीय राज्य मध्यकालीन भारत के महत्वपूर्ण हिस्से थे। चोल, राष्ट्रकूट, पल्लव और होयसाल वंशों ने न केवल सैन्य विजय की बल्कि कला, साहित्य, संस्कृति और स्थापत्य में भी महान योगदान दिया। इन वंशों का अध्ययन UPSC के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ये भारतीय इतिहास और संस्कृति के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। इन वंशों का साम्राज्य, उनके शासकों का कार्य, उनके स्थापत्य और संस्कृति के बारे में विस्तार से अध्ययन करना UPSC की तैयारी के लिए बेहद आवश्यक है।

पश्चिमी चालुक्य वंश (Western Chalukya Dynasty) – विस्तृत विवरण:

परिचय: पश्चिमी चालुक्य वंश (या चालुक्य वंश का कर्नाटकी शाखा) भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण राजवंशों में से एक है, जिसने 10वीं शताबदी से लेकर 12वीं शताबदी तक दक्षिण भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। पश्चिमी चालुक्य वंश की नींव दक्षिण भारत में विशेषकर कर्नाटका राज्य में रखी गई, और इसने पूरे द्रविड़ क्षेत्र में अपनी प्रमुखता स्थापित की। इस वंश के शासकों ने कर्नाटकी संस्कृति, स्थापत्य कला, प्रशासनिक संरचना और धर्म के क्षेत्र में अपूर्व योगदान दिया।

वंश की उत्पत्ति और इतिहास: पश्चिमी चालुक्य वंश की स्थापना 10वीं शताबदी के मध्य में वीर पिल्ली चोल द्वारा की गई थी। यह वंश वास्तव में उत्तर भारतीय चालुक्य वंश से संबंधित था, जिसका मुख्यालय उत्तर भारत के गुजरात क्षेत्र में था, लेकिन यह दक्षिण भारत में विस्तार करने के लिए आया। पश्चिमी चालुक्य वंश के शासकों ने उत्तरी कर्नाटका, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और अन्य क्षेत्रों में भी शासन किया।

प्रमुख शासक और उनका योगदान:

  1. विक्रमादित्य VI (1076–1126):
    • विक्रमादित्य VI पश्चिमी चालुक्य वंश के सबसे महान शासकों में से एक थे। उनका शासनकाल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।
    • विक्रमादित्य VI ने अपने शासनकाल में कई युद्धों में विजय प्राप्त की और द्रविड़ क्षेत्र में चालुक्य साम्राज्य को पुनः सुदृढ़ किया।
    • उनका शासन प्रशासनिक दक्षता, कूटनीति और युद्ध रणनीतियों के लिए प्रसिद्ध था। विक्रमादित्य VI के समय में पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य ने सिखाने-सीखने के लिए बड़ी संख्या में विद्वानों और काव्यकारों को प्रोत्साहित किया।
    • उन्होंने कर्नाटका के विजयनगर, कांची और अन्य स्थानों में कई मंदिरों और संरचनाओं का निर्माण करवाया।
    • विक्रमादित्य VI का प्रशासन काफी संगठित था और उन्होंने अपनी सेना को सशक्त बनाया। उनके समय में चालुक्य साम्राज्य ने दक्षिण भारत में एक प्रमुख शक्ति के रूप में पहचान बनाई।
  2. Somesvara III (1141–1167):
    • सोमेश्वर III विक्रमादित्य VI के बाद आए थे और उनका शासनकाल पश्चिमी चालुक्य वंश के पतन के समय के साथ जुड़ा हुआ था।
    • सोमेश्वर III के शासन में साम्राज्य की शक्ति धीरे-धीरे कमजोर होने लगी, और इसके परिणामस्वरूप कई छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ।
    • इस समय के दौरान मुस्लिम आक्रमणों का खतरा भी बढ़ गया था, और पश्चिमी चालुक्य वंश के शासकों को लगातार संघर्ष करना पड़ा।
  3. विजयादित्य IV (1075–1080):
    • विजयादित्य IV का शासनकाल केवल पांच साल का था, लेकिन उनके समय में पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव द्रविड़ क्षेत्र में सबसे ज़्यादा था।
    • उन्होंने चालुक्य साम्राज्य के विस्तार और स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण अभियान चलाए, और उत्तर कर्नाटका में कई विजय प्राप्त की।

पश्चिमी चालुक्य वंश का प्रशासन:

  • पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य का प्रशासन कुशल और संगठित था। शासक स्वयं उच्च न्यायाधीश और सेनापति के रूप में कार्य करता था।
  • उनके शासनकाल में साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में दण्डनी” (स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी) नियुक्त किए जाते थे।
  • पद्मनाभ वर्मन, जो विक्रमादित्य VI के करीबी सहयोगी थे, ने राजकीय कार्यों और सामरिक अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • वंश के शासकों ने सैन्य के लिए मजबूत सैन्य संरचना तैयार की थी, जिसमें गिल्डों और अन्य संरचनाओं को महत्व दिया गया।

सांस्कृतिक योगदान:

  1. स्थापत्य कला:
    • पश्चिमी चालुक्य वंश ने स्थापत्य कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया। उनके समय में द्रविड़ शैली में कई मंदिरों और किलों का निर्माण हुआ।
    • बदामी (जो पश्चिमी चालुक्य वंश का प्रमुख शहर था) में स्थित रॉक-कट मंदिर, खासकर 6वीं शताबदी के मंदिर, दक्षिण भारत की स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
    • पत्ना और गोल गुम्बज जैसी संरचनाएं उनके स्थापत्य सामर्थ्य को दर्शाती हैं।
  2. धर्म और संस्कृति:
    • पश्चिमी चालुक्य वंश के शासकों ने हिन्दू धर्म को बढ़ावा दिया और विशेष रूप से शिव पूजा को महत्वपूर्ण माना।
    • कैलासनाथ और बदामी के मंदिरों में भगवान शिव, विष्णु और गणेश की पूजा की जाती थी।
    • इस वंश के शासकों ने साहित्य, कला, संगीत और नृत्य के लिए कई संस्थानों की स्थापना की थी।
  3. काव्य और साहित्य:
    • विक्रमादित्य VI के शासनकाल में काव्य लेखन और साहित्य में एक नया युग शुरू हुआ। इस समय के प्रसिद्ध काव्यकारों में समंत भट्ट और कुमार कंबन शामिल थे, जिन्होंने संस्कृत और तमिल साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
    • कई काव्य ग्रंथों और शिलालेखों में चालुक्य वंश के शासकों की वीरता और प्रशासनिक कौशल का वर्णन किया गया है।

पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य का पतन:

  • 12वीं शताबदी के मध्य में पश्चिमी चालुक्य वंश का पतन शुरू हुआ। इसके पीछे कई कारण थे:
    1. आंतरिक संघर्ष और उत्तराधिकारी समस्याओं ने साम्राज्य की शक्ति को कमजोर किया।
    2. विजयनगर साम्राज्य और अन्य दक्षिणी राज्यों जैसे होयसाल वंश और कक्कतिया वंश ने चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को चुनौती दी।
    3. मुस्लिम आक्रमण और उनके बढ़ते प्रभाव के कारण भी पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य की स्थिति कमजोर हो गई।

निष्कर्ष: पश्चिमी चालुक्य वंश ने दक्षिण भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारत की सांस्कृतिक और स्थापत्य धरोहर में अमूल्य योगदान दिया। उनके प्रशासनिक कौशल, सैन्य शक्ति, और सांस्कृतिक उत्थान को देखते हुए यह वंश UPSC जैसे प्रतियोगी परीक्षाओं में अध्ययन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस वंश की उपलब्धियाँ न केवल कर्नाटका और दक्षिण भारत में, बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैली हुई हैं।

कक्कतिया वंश (Kakatiya Dynasty) – विस्तृत विवरण:

परिचय: कक्कतिया वंश दक्षिण भारत का एक प्रमुख वंश था, जिसने 12वीं से 14वीं शताबदी तक आंध्र प्रदेश के विभिन्न हिस्सों पर शासन किया। इस वंश का उदय काकतीयों के संघर्षों और सैन्य नीतियों के कारण हुआ, और इसने दक्षिण भारत में एक सशक्त साम्राज्य की नींव रखी। कक्कतिया साम्राज्य का मुख्यालय वारंगल (जो आजकल तेलंगाना में है) था, और इसने अपनी सैन्य और प्रशासनिक शक्ति से दक्षिण भारत के प्रमुख राज्यों में से एक के रूप में पहचान बनाई।

वंश की उत्पत्ति और इतिहास: कक्कतिया वंश की स्थापना 12वीं शताबदी में हुई थी। प्रारंभ में कक्कतिया वंश छोटे क्षेत्रीय शासक थे, लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे अपनी सैन्य शक्ति और प्रशासनिक क्षमता के कारण एक बड़ा साम्राज्य स्थापित किया। कक्कतिया वंश के शासक यदमा, प्रभाकरा, और रुद्र देव के समय साम्राज्य का विस्तार हुआ, लेकिन कक्कतिया साम्राज्य का वास्तविक उत्कर्ष कृष्ण देव राय के शासनकाल में हुआ।

प्रमुख शासक और उनका योगदान:

  1. कृष्ण देव राय (Krishna Deva Raya) (1509–1530):
    • कक्कतिया वंश के सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली शासक कृष्ण देव राय थे। उनका शासनकाल कक्कतिया साम्राज्य के स्वर्णिम काल के रूप में जाना जाता है।
    • उन्होंने विजयनगर साम्राज्य के साथ सहयोग बढ़ाया और दक्षिण भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों के खिलाफ संघर्ष किया।
    • कृष्ण देव राय ने अपनी सैन्य और कूटनीतिक योजनाओं से कक्कतिया साम्राज्य को अपार विस्तार और समृद्धि दी।
    • उनका शासन एक उत्कृष्ट प्रशासनिक संरचना पर आधारित था, जिसमें उन्होंने नवरत्न” (9 रत्नों) की व्यवस्था की थी, जो विद्वान और काव्यकार थे।
    • कृष्ण देव राय के समय में कक्कतिया साम्राज्य की सशक्त स्थिति को देख कर दक्षिण भारत के अन्य राज्यों ने उनका सम्मान किया। उन्होंने ताम्रपट्टों, काव्य, कला, और साहित्य को प्रोत्साहित किया।
    • उनके शासनकाल में विजयनगर साम्राज्य के साथ सैन्य गठबंधन और मुस्लिम शासकों के खिलाफ संघर्ष प्रमुख था।
  2. रुद्र देव (Rudra Deva) (1210–1235):
    • रुद्र देव कक्कतिया वंश के पहले शासक थे जिन्होंने कक्कतिया साम्राज्य की नींव रखी। उन्होंने वारंगल को अपनी राजधानी बनाकर कक्कतिया साम्राज्य की स्थिरता की शुरुआत की।
    • रुद्र देव के समय में कक्कतिया साम्राज्य ने क्षेत्रीय शासकों और मुस्लिम आक्रमणकारियों के खिलाफ कई युद्धों में सफलता प्राप्त की।
    • रुद्र देव ने युद्ध की रणनीतियों को प्रभावी रूप से लागू किया, और साम्राज्य के प्रशासन को मजबूत किया।
  3. सम्बय देव (Samba Deva) (1235–1279):
    • रुद्र देव के बाद, सम्वय देव ने कक्कतिया साम्राज्य की सत्ता संभाली और शासन का विस्तार किया।
    • सम्वय देव के शासन में कक्कतिया साम्राज्य ने मुस्लिम आक्रमणों के खिलाफ मजबूती से प्रतिकार किया और शेर शाह और अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में उनके आक्रमणों का सामना किया।
    • उन्होंने दक्षिण भारत में व्यापार और संस्कृति के प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कक्कतिया साम्राज्य का प्रशासन:

  • कक्कतिया शासकों का प्रशासन एक संगठित और व्यवस्थित प्रणाली पर आधारित था। उनके साम्राज्य में विभिन्न किलों, गांवों और जिलों का प्रभावी ढंग से प्रशासन किया जाता था।
  • काकतीय प्रशासन में “राज” (राजा) का प्रमुख स्थान था, जो सभी महत्वपूर्ण निर्णयों का निर्धारण करता था। राजकुल” (राज परिवार) और मुख्य अधिकारी” (सैनिक प्रमुख) शासक की शक्ति को सहारा देते थे।
  • प्रशासनिक संरचना में नायक” और शिलालेख” महत्वपूर्ण होते थे, जो प्रशासनिक कार्यों को व्यवस्थित करते थे।
  • कक्कतिया साम्राज्य के तहत भूमि पर नियंत्रण, राजस्व वसूली और न्याय व्यवस्था को प्रभावी रूप से लागू किया गया था।

कक्कतिया साम्राज्य की संस्कृति और वास्तुकला:

  1. वास्तुकला:
    • कक्कतिया साम्राज्य ने वास्तुकला में भी अनमोल योगदान दिया। वारंगल किला और राजा महल जैसी संरचनाएं कक्कतिया वंश के स्थापत्य कला की पहचान बन गईं।
    • कक्कतिया साम्राज्य के प्रमुख मंदिरों में भगवती लक्ष्मी देवी मंदिर, सरस्वती देवी मंदिर और भीमेश्वरी मंदिर शामिल थे।
    • कक्कतिया वास्तुकला में त्रिकोणीय पत्थर के उपयोग से बना मंदिर शिल्प विशेष रूप से प्रसिद्ध था। इन मंदिरों के शिलालेखों से हमें उस समय की संस्कृति, प्रशासन और धर्म के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
  2. कला और साहित्य:
    • कक्कतिया साम्राज्य में कला और साहित्य का प्रोत्साहन हुआ। कृष्ण देव राय के शासनकाल में साहित्यिक कार्यों का निर्माण हुआ।
    • कक्कतिया शासकों ने पौराणिक कथाओं, धर्म और राज्य के ऐतिहासिक दृष्टिकोणों पर आधारित काव्य और साहित्यिक कृतियों को बढ़ावा दिया।
    • नवरत्न” शासकों द्वारा नियुक्त विद्वानों और कवियों का समूह था, जिसने कक्कतिया वंश के शासनकाल को सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध किया।
    • कक्कतिया शासकों ने काव्य, संगीत, नृत्य और कला में कई महत्वपूर्ण कार्य किए।

धर्म:

  • कक्कतिया वंश के शासक मुख्यतः हिन्दू धर्म के अनुयायी थे और उन्होंने विभिन्न हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा की।
  • शासक स्वयं धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेते थे और कई मंदिरों का निर्माण भी करवाते थे।
  • कक्कतिया साम्राज्य के शासकों का विशेष ध्यान शिव पूजा, विष्णु पूजा और अन्य प्रमुख हिन्दू देवताओं की पूजा पर था।
  • धर्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भगवान विष्णु और भगवान शिव के मंदिरों का निर्माण हुआ और इन धार्मिक स्थलों को शाही संरक्षण प्राप्त था।

कक्कतिया साम्राज्य का पतन:

  • कक्कतिया वंश का पतन 14वीं शताबदी के आसपास हुआ। इसके मुख्य कारण थे:
    1. दिल्ली सल्तनत और अन्य मुस्लिम आक्रमणकारियों के लगातार हमले, जिसने कक्कतिया साम्राज्य की रक्षा करने में कठिनाइयां उत्पन्न कीं।
    2. राजनैतिक अस्थिरता और शाही परिवार में उत्तराधिकार को लेकर विवादों ने साम्राज्य को कमजोर किया।
    3. मलिक कपूर और तुगलक शासकों के साथ युद्ध के परिणामस्वरूप कक्कतिया साम्राज्य का अंत हुआ।

निष्कर्ष: कक्कतिया वंश का इतिहास भारत के दक्षिणी राज्यों के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके शासकों का सैन्य कौशल, प्रशासनिक संरचना और सांस्कृतिक योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण था। कक्कतिया साम्राज्य ने न केवल दक्षिण भारत के राजनीतिक परिदृश्य को आकार दिया बल्कि भारतीय वास्तुकला, साहित्य और धर्म के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान किया। UPSC की दृष्टि से कक्कतिया वंश का अध्ययन भारतीय इतिहास के विभिन्न पहलुओं को समझने में सहायक होता है, जिसमें प्रशासन, सैन्य और सांस्कृतिक उन्नति का विश्लेषण शामिल है।

यादव वंश (Yadava Dynasty) – विस्तृत विवरण:

परिचय: यादव वंश दक्षिण भारत के एक महत्वपूर्ण राजवंशों में से एक था, जो मुख्यतः दक्षिण भारत के मध्य और पश्चिमी भागों में फैला हुआ था। यह वंश मध्यकालीन भारत में प्रमुख था और इसने देवगिरि (आजकल दौलताबाद, महाराष्ट्र) को अपनी राजधानी बनाकर एक सशक्त साम्राज्य स्थापित किया। यादव वंश का उत्कर्ष 12वीं से 14वीं शताबदी तक था, और यह वंश भारतीय इतिहास में खासकर अपनी युद्धनीति, संस्कृति, और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है।

वंश की उत्पत्ति: यादव वंश का आरंभ देवगिरि क्षेत्र से हुआ था। इस वंश की उत्पत्ति मूल रूप से क्षत्रिय समुदाय से मानी जाती है, और इसका नाम यादव” महाभारत के काले वर्णन और कृष्ण के साथ जुड़ा हुआ है। इस वंश ने अपने शासन का आरंभ भीमदेव द्वारा किया, और वह एक समय में चंदेल वंश के अधीन थे। बाद में इस वंश ने स्वतंत्रता प्राप्त की और देवगिरि को अपनी राजधानी बनाया।

यादव वंश के प्रमुख शासक और उनका योगदान:

  1. भीमदेव (Bhimdev I) (1190–1195):
    • भीमदेव यादव वंश के पहले शासक थे। उन्होंने देवगिरि (आज का दौलताबाद) को अपनी राजधानी बनाई।
    • भीमदेव ने शाही परिवार के भीतर अपनी शक्ति स्थापित की और राज्य की सीमा का विस्तार किया।
    • उन्होंने अपने शासन में कई किलों और किलाबंदी के कार्य किए, जो यादव साम्राज्य की सुरक्षा को मजबूत करते थे।
  2. वीर बल्लाल (Vira Ballala) (1195–1210):
    • वीर बल्लाल के शासनकाल में यादव साम्राज्य को बहुत बढ़ावा मिला। वह एक सशक्त शासक थे जिन्होंने कर्नाटका और महाराष्ट्र के क्षेत्र में साम्राज्य का विस्तार किया।
    • वीर बल्लाल ने चोल वंश के साथ गठबंधन किया और विजयनगर साम्राज्य के खिलाफ कई युद्धों में विजय प्राप्त की।
    • उनके समय में प्रशासनिक और सैन्य सुधारों के कारण साम्राज्य की शक्ति में वृद्धि हुई।
  3. सिंहदेव (Singhdev) (1210–1240):
    • सिंहदेव के शासनकाल में यादव वंश ने धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण को बढ़ावा दिया।
    • सिंहदेव ने वैष्णव धर्म को राज्य धर्म के रूप में प्रोत्साहित किया और कृष्ण की पूजा को राज्य का मुख्य पूजा स्थान बनाया।
  4. भिल्लम देव (Bhillama Deva) (1250–1280):
    • भिल्लम देव यादव वंश के सबसे महान शासकों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने अपने समय में यादव साम्राज्य का सबसे बड़ा विस्तार किया।
    • उन्होंने महाराष्ट्र और कर्नाटका के कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की और मध्य भारत में अपने साम्राज्य को स्थापित किया।
    • भिल्लम देव ने अपनी राजधानी को देवगिरि से दौलताबाद में स्थानांतरित किया, जो बाद में तुर्की आक्रमणों के कारण महत्वपूर्ण हुआ।
  5. संग्रामदेव (Sangram Deva) (1280–1300):
    • संग्राम देव ने यादव साम्राज्य को महत्वपूर्ण युद्धों और कूटनीतिक उपायों के द्वारा सुदृढ़ किया।
    • उनके शासनकाल में यादव साम्राज्य ने तुगलक साम्राज्य और अन्य मुस्लिम शासकों के साथ कई संघर्ष किए।
  6. हर्षदेव (Harshadeva) (1300–1320):
    • हर्षदेव के शासनकाल में यादव साम्राज्य के खिलाफ मुस्लिम आक्रमणों की शुरुआत हुई। अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमणों ने यादव साम्राज्य की शक्ति को कमजोर कर दिया।
    • हर्षदेव ने राजस्व नीति, कृषि विकास, और सैन्य सुधार जैसे कार्य किए, लेकिन मुस्लिम आक्रमणों के सामने साम्राज्य की स्थिति कमजोर हो गई।
  7. शिवराज (Shivraj) (1320–1330):
    • शिवराज यादव वंश के अंतिम शासक थे। उनके समय में मोहम्मद बिन तुगलक के हमलों ने यादव साम्राज्य का विनाश कर दिया।
    • शिवराज ने अपनी पूरी ताकत से अपनी भूमि की रक्षा करने का प्रयास किया, लेकिन अंततः साम्राज्य तुर्कों द्वारा कब्जा कर लिया गया।

यादव साम्राज्य का प्रशासन:

  • यादव साम्राज्य का प्रशासन राज्य संरचना, सैन्य संगठन और विभागीय नीति के आधार पर व्यवस्थित था।
  • शासक के पास मुख्य राज्य निर्णय लेने का अधिकार था, जबकि सैन्य प्रमुखों और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों को स्वतंत्रता दी गई थी।
  • राज्य के शाही परिवार के सदस्य नायक” के रूप में कार्य करते थे, जो राज्य के विभिन्न हिस्सों के शासन के लिए जिम्मेदार होते थे।
  • राजस्व प्रणाली में कृषि उत्पादन और व्यापार से जुड़े राजस्व की वसूली की जाती थी।

धर्म और संस्कृति:

  • यादव वंश के शासकों ने हिन्दू धर्म को बढ़ावा दिया और विशेष रूप से कृष्ण पूजा को सम्मानित किया।
  • राज्य का मुख्य पूजा स्थान कृष्ण मंदिर था। शासकों ने विभिन्न हिन्दू मंदिरों का निर्माण भी कराया।
  • यादव वंश के शासकों ने साहित्य, कला और संगीत के क्षेत्र में भी योगदान दिया। इस समय में काव्य रचनाएं और संस्कृत साहित्य प्रचलित हुआ।
  • यादव वंश ने मध्यकालीन भारतीय कला और वास्तुकला में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके समय में शिलालेख और वास्तुशिल्प के उत्कृष्ट उदाहरण मिलते हैं।

यादव साम्राज्य का पतन:

  • यादव वंश का पतन मुख्य रूप से मुस्लिम आक्रमणों और आंतरिक विघटन के कारण हुआ।
  • अलाउद्दीन खिलजी और मोहम्मद बिन तुगलक के हमलों ने यादव साम्राज्य को कमजोर किया।
  • यादव वंश की अंततः मौजूदा तुर्की साम्राज्य द्वारा हार और साम्राज्य के पतन के साथ समाप्त हो गई।

निष्कर्ष: यादव वंश का इतिहास भारतीय मध्यकालीन इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस वंश ने दक्षिण भारत के राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन को प्रभावित किया। यादव वंश के शासकों के कार्यों का प्रभाव आज भी दक्षिण भारत की संस्कृति, कला और स्थापत्य में देखा जा सकता है। यूपीएससी जैसे प्रतियोगी परीक्षाओं के दृष्टिकोण से, यादव वंश का अध्ययन भारतीय इतिहास के प्रशासन, धर्म, संस्कृति और युद्धनीति को समझने में सहायक होता है।

होयसल वंश (Hoysala Dynasty) – विस्तृत विवरण:

परिचय: होयसल वंश दक्षिण भारत का एक प्रमुख वंश था, जिसका शासनकाल 12वीं से 14वीं शताबदी तक था। यह वंश कर्नाटका और उसके आस-पास के क्षेत्रों में शक्तिशाली था। होयसल वंश की स्थापना विक्रमादित्य और भोज के द्वारा की गई थी, हालांकि इस वंश के सबसे प्रसिद्ध शासक विश्णुवर्धन और विरूपाक्ष थे। होयसल वंश की राजधानी द्वारसमुद्र (जो आजकल हासान के पास स्थित है) थी, जबकि इसके बाद की राजधानी बिल्ली (बेल्लारी) और हुबली भी प्रमुख केंद्र बने। होयसल साम्राज्य ने भारतीय कला, संस्कृति, धर्म, और वास्तुकला में अत्यधिक योगदान दिया।

वंश की उत्पत्ति और इतिहास: होयसल वंश का आरंभ 10वीं शताबदी में हुआ था। प्रारंभ में यह वंश गंग वंश के अधीन था और एक छोटे से शासक के रूप में अपने शासन की शुरुआत की थी। बाद में, इस वंश ने चालुक्य वंश और चोल वंश के खिलाफ संघर्ष करते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार किया और कर्नाटका क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई। होयसल शासकों ने दक्षिण भारत में अपनी ताकत को स्थापित किया और कर्नाटका, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में अपनी सत्ता कायम की।

प्रमुख शासक और उनका योगदान:

  1. विश्णुवर्धन (Vishnuvardhana) (1108–1152):
    • विश्णुवर्धन होयसल वंश के सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली शासक थे। उन्होंने होयसल साम्राज्य की नींव को मजबूत किया और उसे दक्षिण भारत के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक बना दिया।
    • विश्णुवर्धन ने चोल वंश से युद्ध किया और दक्षिण भारत के एक बड़े हिस्से को अपने साम्राज्य में शामिल किया।
    • उन्होंने हिंदू धर्म को बढ़ावा दिया, विशेष रूप से विश्णु पूजा का प्रचार किया।
    • विश्णुवर्धन के समय में कर्नाटकी संस्कृति और संस्कृत साहित्य का विशेष उत्थान हुआ। उन्होंने विष्णु महात्म्य” और अन्य काव्य रचनाओं को प्रोत्साहित किया।
  2. विरूपाक्ष (Vira Somesvara) (1152–1170):
    • विश्णुवर्धन के बाद, उनके पुत्र विरूपाक्ष ने साम्राज्य की सत्ता संभाली। उनके शासनकाल में साम्राज्य की सीमा और स्थिरता को बढ़ावा मिला।
    • विरूपाक्ष ने युद्धों में सफलता प्राप्त की और कर्नाटका में अपने साम्राज्य को मजबूत किया।
    • उन्होंने कर्नाटकी स्थापत्य कला और हिंदू मंदिरों के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। विशेष रूप से बेल्लारी में उनका योगदान प्रसिद्ध था।
  3. कृष्ण देव राय (Krishna Deva Raya) (1160–1190):
    • कृष्ण देव राय का शासनकाल होयसल साम्राज्य के उत्कर्ष का समय था। उन्होंने साम्राज्य को अत्यधिक संपन्न और शक्तिशाली बनाया।
    • कृष्ण देव राय ने चोल साम्राज्य के खिलाफ युद्धों में सफलता प्राप्त की और दक्षिण भारत में होयसल साम्राज्य को सबसे बड़ा साम्राज्य बना दिया।
    • उन्होंने चोल वंश को समाप्त किया और तेलुगु और कन्नड़ साहित्य और संस्कृति को प्रोत्साहित किया।
  4. रामदेव (Rama Deva) (1190–1210):
    • रामदेव के समय में होयसल साम्राज्य को नए क्षेत्रों में विस्तार मिला।
    • उनके समय में व्यापार और सांस्कृतिक समृद्धि ने दक्षिण भारत को अन्य हिस्सों से जोड़ने में मदद की।
  5. बल्लाल देव (Ballala Deva) (1210–1250):
    • बल्लाल देव के समय में होयसल साम्राज्य में संघर्ष और आंतरिक विद्वेष बढ़ गए थे, हालांकि उन्होंने साम्राज्य को बाहरी हमलों से बचाने की कोशिश की।
    • उनके समय में चोल और दिल्ली सल्तनत के आक्रमण बढ़ गए थे, लेकिन उन्होंने मुस्लिम आक्रमणों से प्रतिकार किया।
  6. श्रृंगेरी (Shringeri) और चौलुक्य (Chaulukya) वंश से संघर्ष:
    • होयसल वंश ने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि अन्य प्रमुख दक्षिण भारतीय वंशों के साथ भी संघर्ष किया। इस संघर्ष में चौलुक्य वंश और श्री कृष्ण देव राय का योगदान उल्लेखनीय था।

कक्कतिया साम्राज्य के साथ युद्ध:

  • कक्कतिया साम्राज्य के साथ होयसल वंश ने समय-समय पर युद्ध किए। दोनों वंशों के बीच वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा थी। विशेष रूप से कक्कतिया साम्राज्य की भूमि पर नियंत्रण के लिए संघर्ष हुआ।
होयसल साम्राज्य की संस्कृति और वास्तुकला:
  1. वास्तुकला:
    • होयसल वंश के शासनकाल में कर्नाटकी वास्तुकला का उत्कर्ष हुआ। होयसल वास्तुकला में संपूर्ण कुम्भ और शिखर स्तंभ का विशेष स्थान था।
    • प्रमुख उदाहरण हलेबिड मंदिर और बेल्लारी मंदिर हैं, जिनकी वास्तुकला में शिल्प कला और धार्मिक चित्रण अत्यधिक महत्वपूर्ण थे।
    • चिंतामणी मंदिर, धर्मराजेश्वर मंदिर और कृष्ण मंदिर जैसे विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ, जो आज भी दक्षिण भारत की वास्तुकला का गौरव माने जाते हैं।
    • इन मंदिरों में कन्नड़ शिलालेख, नक्काशी और मूर्तिकला की विशिष्टता है।
  2. कला और साहित्य:
    • होयसल शासकों ने कला और साहित्य को बढ़ावा दिया। कन्नड़ और संस्कृत साहित्य के साथ-साथ तेलुगु साहित्य का भी विकास हुआ।
    • काव्य रचनाएं, संगीत, नृत्य और कला के विभिन्न रूपों को शासकों द्वारा प्रोत्साहन मिला।
    • शासकों ने कवि रत्न और संगीतज्ञों को अपनी दरबार में जगह दी और साहित्य को सम्मानित किया।
  3. धर्म:
    • होयसल वंश के शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे, और विशेष रूप से भगवान विष्णु और शिव की पूजा की जाती थी।
    • उन्होंने धार्मिक गतिविधियों को प्रोत्साहित किया, जैसे कि हिंदू मंदिरों का निर्माण और धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन
    • इस वंश ने तत्त्वज्ञान, आध्यात्मिकता और धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया।

होयसल साम्राज्य का पतन:

  • होयसल वंश का पतन मुख्यतः दिल्ली सल्तनत और मुस्लिम आक्रमणों के कारण हुआ।
  • अलाउद्दीन खिलजी और मोहम्मद बिन तुगलक के आक्रमणों ने होयसल साम्राज्य की शक्ति को कमजोर किया और अंततः यह साम्राज्य दिल्ली सल्तनत के अधीन आ गया।

निष्कर्ष: होयसल वंश का इतिहास भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके शासकों ने ना केवल सैन्य और प्रशासन में दक्षता दिखाई, बल्कि भारतीय कला, साहित्य, और धर्म के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। होयसल वंश ने कर्नाटकी वास्तुकला का विकास किया और दक्षिण भारत की सांस्कृतिक धारा को नई दिशा दी। UPSC जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं के दृष्टिकोण से होयसल वंश का अध्ययन भारतीय इतिहास, वास्तुकला, संस्कृति और राजनीति को समझने के लिए आवश्यक है।

FAQ

1. विजयनगर साम्राज्य का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था?

विजयनगर साम्राज्य के सबसे प्रसिद्ध शासक कृष्णदेव राय (1509-1529) थे। वे तुलुव वंश से थे और उनके शासनकाल में साम्राज्य की उन्नति हुई।

2. विजयनगर और बहमनी सल्तनत के बीच कौन-कौन सी लड़ाइयाँ हुईं?

विजयनगर और बहमनी सल्तनत के बीच कई युद्ध हुए, जिनमें सबसे प्रसिद्ध राक्षस-तांगडी (तलिकोटा) का युद्ध (1565) था। इस युद्ध में विजयनगर की हार हुई और साम्राज्य का पतन शुरू हो गया।

3. दक्षिण भारत में इस्लामी सल्तनत का प्रभाव कब और कैसे बढ़ा?

14वीं शताब्दी में बहमनी सल्तनत की स्थापना के बाद इस्लामी शासन का विस्तार हुआ। बाद में इसे पांच हिस्सों में बाँट दिया गया, जिनमें बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर, बरार और बिदर प्रमुख थे। 1687 तक मुगलों ने इन सल्तनतों को हरा दिया।

4. बहमनी सल्तनत क्यों टूटी?

बहमनी सल्तनत का पतन आंतरिक संघर्ष, कमजोर प्रशासन और उत्तराधिकार के विवादों के कारण हुआ। इसे 1518 में पांच स्वतंत्र राज्यों में विभाजित कर दिया गया।

5. गोलकुंडा सल्तनत किस लिए प्रसिद्ध थी?

गोलकुंडा अपनी हीरे की खानों के लिए प्रसिद्ध थी। यहाँ से दुनिया के सबसे प्रसिद्ध हीरे, जैसे कोहिनूर और होप डायमंड, प्राप्त हुए थे।

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